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दसवेलियं (दशवेकालिक)
१४४. जीवों की हिंसा के ( भूयाहिगरणं प ) :
एकेन्द्रिय आदि भूत कहलाते हैं । उन पर संघट्टन, परितापन आदि के द्वारा अधिकार करना उनका हनन करना, 'भूताधिकरण' कहलाता है'।
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श्लोक ५१
अध्ययन ८ श्लोक ५१-५२ टि० १४४-१४८
१४५. दूसरों के लिए बने हुए ( अन्नट्ठे पगडं क ) :
अन्यार्थ -- प्रकृत अर्थात् साधु के अतिरिक्त किसी दूसरे के लिए बनाया हुआ । यहाँ अन्यार्थ शब्द यह सूचित करता है कि जिस प्रकार गृहस्थों के लिए बने हुए घरों में साधु रहते हैं, उसी प्रकार अन्य तीर्थिकों के लिए निर्मित वसति में भी साधु रह सकते हैं । १४६. गृह ( लयणं ) :
'लयन' का अर्थ है पर्वतों में उत्खनित पाषाण- गृह । जिसमें लीन होते हैं, उसे लयन कहा जाता है । लयन और घर एक अवाले हैं।
१४७. स्त्री और पशु से रहित ( इत्यपविज्जियं प )
यहाँ स्त्री, पशु के द्वारा नपुंसक का भी ग्रहण होता है । विवर्जित का तात्पर्य है जहां ये दीखते हों वैसे मकान में साधु को नहीं रहना चाहिए ।
श्लोक ५२ :
ख
):
१४८. केवल स्त्रियों के बीच व्याख्यान न दे ( नारीणं न लवे कहूं 'नारीणं' यह षष्ठी का बहुवचन है। इसके अनुसार इस चरण का अर्थ
होता है— स्त्रियों की कथा न कहे अथवा स्त्रियों को कथा न कहे । अगस्त्य वर्ण के अनुसार इसका अर्थ है-मुनि जहाँ विविक्त शय्या में रहता है वहाँ अपनी इच्छा से आई हुई स्त्रियों को शृङ्गारसम्बन्धी कथा न कहे। जिनदास घूर्णि और टीका में इसका अर्थ है-मुनि स्त्रियों को कथा न कहे । हरिभद्र ने इस अर्थ का विचार
१- (क) अ० चू० पृ० १९७ : भूताणि उपरोधक्रियाए अधिकयंते जम्मि तं भूताधिकरणं ।
(ख) जि० ० पृ० २६० भूतानि एडियाई लेसि संघट्टयरितारणादीनि अहियं कोरंति मि तं भूताधिकरणं ।
(ग) हा० टी० १० २३६ भूतानिएकेन्द्रियादीनि संघट्टनादिनाऽधिकरमन्निति । 'अर्थ' न सानिमित्तमेव नित्तितम् ।
२ हा० डी० १० २३६ २००० २६० अन्नग्रहण अन्नत्यागहिया, अडाए नाम अन्ननिमित्तं पगडं कवि भण ४ – (क) अ० चू० पृ० १६८ : लीयंते जम्मि तं लेणं णिलयणमाश्रयः ।
(ख) हा० टी० प० २३६ : 'लयनं' स्थानं वसतिरूपम् ।
५- जि० चू० पृ० २६० : लयणं नाम लयणंति वा गिर्हति वा एगट्ठा ।
६ (क) जि० ० ० २१० तहा इत्यहि
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पहिय महीयवादी
एवम गहणं सजातीयाण मितिकाउं णपुंसगविवज्जियंपि, विवज्जियं नाम जत्थ तेसि आलोयमादीणि णत्थि तं विवज्जियं भण्णइ, तत्थ आतपर समुत्था दोसा भवंतित्तिकाउं ण ठाइयव्वं ।
(ख) हा० टी० १० २३७ स्त्रोत सावलोकन विरहितम् ।
७- अ० चू० तत्थ जतिच्छोवगताण वि नारीणं सिंगारातिगं विसेसेणग कधे कहं ।
(क) जि० ० ० २२० तोए विविताए जाए गारीणं णो कह कहेगा कि कहा कि कारणं आतपरसमुत्या बंभचेरस्स दोसा भवंतित्तिकाउं ।
(ख) हा० टी० प० २३७ विविक्ता च तदन्यापुनी रहिता च चदारावाविवभुजगायेकपुरुषदुक्ता च भवेच्छय्याबतियंदितो 'नारीणां स्त्रीणां न चयेत्कचादोषप्रसङ्गात्।
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