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आयारपणिही ( आचार-प्रणिधि )
अध्ययन ८ : श्लोक ६ टि० १०-१६ १०. न बैठे ( निसिए क):
बैठने का स्पष्ट निषेध है । इसके उपलक्षण से खड़ा रहने, सोने आदि का भी निषेध समझ लेना चाहिए। ११. प्रमार्जन कर ( पमज्जित्तु ग):
___ सचित्त-पृथ्वी पर बैठने का सर्वथा निषेध है । अचित्त पृथ्वी पर सामान्यतः आसन बिछाए बिना बैठने का निषेध है, किन्तु धूलि का प्रमार्जन कर बैठने का विधान भी है । यह उस सामान्य विधि का अपवाद है।
१२. लेकर (जाइत्ता घ):
__ चूणि और टीका के अनुसार यह पाठ 'जाणित्त' रहा—ऐसा संभव है । उसके संस्कृत रूप 'ज्ञात्वा' और 'ज्ञपयित्वा' दोनों हो सकते हैं । ज्ञात्वा अर्थात् पृथ्वी को अचेतन जानकर, ज्ञपयित्वा अर्थात् वह जिसकी हो उसे जताकर- अनुमति लेकर या मांगकर । टीका में 'जाइत्ता' की भी व्याख्या है।
श्लोक ६:
१३. शीतोदक ( सीओदगंक):
यहाँ इसका अर्थ है-भूम्याश्रित सचित्त जल। १४. ( वुटुंख):
बरसात का पानी, अन्तरिक्ष का जल'।
१५. हिम का (हिमाणि ख ):
हिम-पात शीतकाल में होता है और वह प्रायः उत्तरापथ में होता है। १६. तप्त होने पर जो प्रासुक हो गया हो वैसा जल ( उसिणोदगं तत्तफासुयं ") :
शिष्य ने पूछा-भगवन् ! जो उष्णोदक होता है वह तप्त भी होता है और प्रासुक भी होता है तब फिर उसके साथ तप्त-प्रासुक विशेषण क्यों लगाया गया ?
१--हा० टी०प० २२८ : न निषीदेत्, निषीदन ग्रहणात् स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । २-हा० टी०प० २२८ : अचेतनायां तु प्रमज्य तां रजोहरणेन निषोदेत् । ३-(क) अ० चू० पृ० १८५ : जाणित्तु सत्थोवहता इति लिंगतो पंचविहं वा ओग्गहं जाणित्तु तं जाइय अणुण्णवित । (ख) जि० चू० पृ० २७५ : जाणिऊण जहा एसा अचित्तजयणा, अगणिमाई उवहयस्स य जस्स सो परिग्गहो तस्स उग्गहं
अणुजाणावेऊण निसीदणादीणि कुज्जा । (ग) हा० टी०प० २२८ : 'ज्ञात्वे' त्यचेतनां ज्ञात्वा 'याचयित्वाऽवग्रह' मिति यस्य संबन्धिनी पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येति । ४-(क) अ० चू० पृ० १८५ : 'सीतोदगं' तलागादिसु भौम पाणितं ।
(ख) जि० चू० पृ० २७५ : सीतोदगगहणेण सचेतणस्स उदयस्स गहणं कयं ।
(ग) हा० टी० प० २२८ : 'शीतोदक' पृथिव्युद्भवं सच्चित्तोदकम् । ५—(क) अ० चू० पृ० १८५ : 'वुठें तक्कालवरिसोदगं ।
(ख) जि. चू० पृ० २७६ : वुठ्ठग्गहणण सेसअंतरिक्खोदगस्स गहणं कयं । ६–अ० चू० पृ० १८५ : हिमं हिमवति सीतकाले भवति । ७-(क) जि० चू० पृ० २७६ : हिमं पाउसे उत्तरापहे भवति ।
(ख) हा० टी०प० २२८ : हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति ।
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