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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ८: श्लोक ७-६ टि. १७-२२ आचार्य ने कहा----सारा उष्णोदक तप्त-प्रासुक नहीं होता, किन्तु पर्याप्त मात्रा में उबल जाने पर ही वह तप्त-प्रासुक होता है । इसलिए यह विशेषण सार्थक है । मुनि के लिए वही उष्णोदक ग्राह्य है, जो पूर्ण मात्रा में तप्त होने पर प्रासुक हो जाए।
अनुसन्धान के लिए देखिए ५.२.२२ की टिप्पण संख्या ४०-४१ ।
श्लोक ७:
१७. जल से भीगे अपने शरीर को ( उदउल्लं अप्पणो कायं क ) :
मुनि के शरीर भीगने का प्रसंग तब आता है जब वे नदी पार करते हैं या भिक्षाटन में वर्षा आ जाती है।
१८. पोंछे मले ( पुंछ संलिहे ख ) :
वस्त्र तृण आदि से पोंछना 'प्रोञ्छन' और उंगली, हाथ आदि से पोछना 'संलेखन' कहलाता है। १६. तथाभूत ( तहाभूयं ग ) :
'तथाभूत' का अर्थ आर्द्र या स्निग्ध है। २०. देखकर ( समुप्पेह "): ___टीका में इसका अर्थ 'देखकर' किया है । चूणियों के अनुसार 'समुप्पेहे' पाठ है । इसका अर्थ है-सम्यक प्रकार से देखे।
श्लोक २१. श्लोक ८: अङ्गार आदि शब्दों की विशेष जानकारी के लिए देखिए ४.२० की टिप्पण संख्या ८९-१०० ।
श्लोक : २२. बाहरी पुद्गलो पर ( बाहिरं..... पोग्गलं घ):
बाह्य पुद्गल का अर्थ व्यतिरिक्त वस्तु'-उष्णोदक आदि पदार्थ हैं।
१-(क) जि० चू० पृ० २७६ : तं पुण उण्होदगं जाहे तत्तं फासुगं भवति ताहे संजतो पडिग्गाहिज्जत्ति, आह-उण्होदगमेव वत्तव्वं
तत्त फासुगगहणं न कायवं, जम्हा जं उण्होदगं तमवस्सं तत्तं फासुयं च भविस्सइ ?, आयरियो आह -न सव्वं उण्होदर्ग
तत्तफासुयं भवति, जाहे सव्वत्ता डंडा ताहे फासुयं भवति, अतो तत्तफासुयगहणं कयं भवति । (ख) हा० टी०प० २२८ : 'उष्णोदकं क्वथितोदकं तप्तप्रासुक' तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदण्डोद्वत्तं, नोष्णोदकमात्रम् । २-हा० टी०प० २२८ : नदीमुत्तोर्गो भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः 'उदकाम्' उदकबिन्दुचितमात्मन: 'कार्य' शरीरं स्निग्धं वा । ३- (क) अ० चू० पृ० १६६ : पुंछणं वत्थादीहि लूसणं संलेहणमंगुलिमादीहिं णिच्छोडणं ।
(ख) जि० चू० पृ० २७६ : तत्थ पुंछणं वत्थेहि तणादीहि वा भवइ, संलिहणं जं पाणिणा संलिहिऊण णिच्छोडेइ एवमादि ।
(ग) हा० टी० प० २२८ : 'पुञ्छयेद्' वस्त्रतृणादिभिः 'न संलिखेत' पाणिना । ४-(क) अ० चू० पृ० १८६ : तथाभूतमिति उदओल्लं सरिसं।
(ख) जि० चू० पृ० २७६ : तहाभूअं णाम जं उदउल्लं ससनिद्ध ।
(ग) हा० टी०प० : 'तथाभूतम्' उदकार्दादिरूपम् । ५ हा० टी० प० २२८ : 'संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य । ६-(क) अ० चू० पृ० १८६ : समुप्पेहे उवेक्खेज्जा परिधारेज्जा ।
(ख) जि० चू०प० २७६ : समुप्पेहे नाम सम्म उवेहे. संमं णिरिक्खतित्ति वुत्तं भवइ । ७-अ० चू० पृ० १८६ : सरीरवतिरित्त वा बाहिरं पोग्गलं । ८--(क) जि० ०५० २७७ : बाहिरपोग्गलग्गहणणं उसिणोदयादीणं गहणं ।
(ख) हा० टी० प० २२६ : 'बाह्य वापि पुद्गलम् उष्णोदकादि ।
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