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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि)
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अध्ययन ८ : श्लोक १०-१२ टि० २३-२८
श्लोक १०:
२३. तृण, वृक्ष ( तणरुक्खं क) :
'तृण' शब्द से सभी प्रकार की घासों और 'वृक्ष' शब्द से सभी प्रकार के वृक्षों एवं गुच्छ, गुल्म आदि का ग्रहण किया गया है । तृणद्रुम संयुक्त शब्द भी है। कोश में नालिकेर, खजूर और पूग आदि ताल जाति के वृक्षों को तृणद्रुम कहा है, संभवत: इसीलिए कि तृणों के समान इनके भी रेशे समानान्तर और कांटे नुकीले होते हैं । किन्तु यहाँ इनका वियुक्त अर्थ-ग्रहण ही अधिक संगत है।
श्लोक ११:
२४. वन-निकुञ्ज के बीच ( गहणेसु क ): - गहन का अर्थ है वृक्षाच्छन्न प्रदेश । गहन में हलन-चलन करने से वृक्ष की शाखा आदि का स्पर्श होने की संभावना रहती है इसलिए वहाँ ठहरने का निषेध है।
२५. अनन्तकायिक वनस्पति ( उदगम्मिग ) :
'उदक' के दो अर्थ किए गए हैं --अनन्तकायिक वनस्पति और जल । किन्तु यह वनस्पति का प्रकरण है, इसलिए यहाँ इसका अर्थ वनस्पति-परक ही संगत है। प्रज्ञापना ब भगवती में अनन्तकायिक वनस्पति के प्रकरण में 'उदक' नामक वनस्पति का उल्लेख हुआ है। जहाँ जल होता है वहाँ वनस्पति होती है अर्थात् जल में वनस्पति होने का नियम है। इस वनस्पति-प्रधान दृष्टि से इसका अर्थ जल भी किया जा सकता है । २६. सर्पच्छत्र ( उत्तिग ध ) :
इसका अर्थ सर्पच्छन ....कुकुरमुत्ता है । यह पौधा बरसात के दिनों में पेड़ों की जड़ो में या सील की जगह में उगा करता है।
२७. खड़ा न रहे ( न चिट्ठज्जा क ):
यह शब्द न बैठे, न सोए आदि का संग्राहक है।
श्लोक १२ २८. सब जीवों के ( सव्वभूएसु " ) :
यह बस का प्रकरण है इसलिए यहाँ 'सर्वभूत' का अर्थ 'सर्व बस जीव' हैं ।
१---(क) जि० चू० पृ० २७७ : तत्थ तणं दब्भादि, रुक्खगहणेण एगट्ठियाण बहुबीयाण य गहणं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'
मितिकाउ सेसावि गुच्छगुम्मादि गहिया । (ख) हा० टी०प० २२६ : तृणानि --दर्भादोनि, वृक्षा: ---कदम्बादयः । २---अमर० काण्ड २ वर्ग ४ श्लोक १७० : खजूरः केतकी ताली खजूरी च तृणद्रुमाः । ३--(क) जि० चू० पृ० २७७ : गहणं गुविलं भण्णइ, तत्थ उठवत्तमाणो परियत्तमाणो वा साहादीणि घट्ट'इ तं गहणं, तत्थ नो
चिट्ठज्जा । (ख) हा० टी० प० २२६ : 'गहनेषु' वननिकुञ्जेषु' न तिष्ठेत्, संघटनादिदोषप्रसङ्गात् । ४-जि० चू० पृ० २७७ : तत्थ उदगं नाम अणंतवणप्फई, से भणियं च ...'उदए अवए पणए सेवाले' एवमादि, अहवा उदगगहणेण
उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा ?, जेण उदएण वणप्फइकाओ अस्थि । ५–पन्न १.४३ पृ० १०५ : जलरुहा अणेगविहा पन्नत्ता, जहा-उदए, अवए, पणए....। ६- हा० टी० प० २२६ : 'उत्तिङ्गः'...सर्पच्छत्रादिः । ७-अ० चू० पृ० १८७ : ण चिठे णिसीदणादि सब्बं ण चेएज्जा। ८-अ० चू० पृ० १८७ : सव्वभूताणि तसकायाधिकारोत्ति सव्वतसा ।
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