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दसवेआलिय ( दशवकालिक )
अध्ययन ८ : श्लोक ४-५ टि०६-६
अहिंसक (हिंसा-रहित ) होता है, उसे 'अक्षण योग' कहा जाता है।
श्लोक ४: ६. श्लोक ४।
भेदन और लेखन करने से पृथ्वी आदि अचित्त हों तो उसके आथित जीवों की और सचित्त हों तो उसकी और उसके आश्रित जीव दोनों की हिंसा होती है, इसलिए इसका निषेध है।
७. भित्ति ( भित्ति क ):
इसका अर्थ है-दरार। अनुसन्धान के लिए देखिए ४.१८ की टिप्पण संख्या ६६ ।
श्लोक ५:
८. शुद्ध पृथ्वी ( सुद्धपुढवी ए क ):
__ 'शुद्ध पृथ्वी' के दो अर्थ हैं --शस्त्र से अनुपहत पृथ्वी अर्थात् सचित्त-पृथ्वी और शस्त्र से उपहत -- अचित्त होने पर भी जिस पर कंबल आदि बिछा हुआ न हो वह पृथ्वी । गात्र की उष्मा से पृथ्वी के जीवों की विराधना होती है, इसलिए सचित्त पृथ्वी पर नहीं बैठना चाहिए और कंबल आदि बिछाए बिना जो अचित्त पृथ्वी पर बैठता है उसका शरीर धूलि से लिप्त हो जाता है अथवा उसके निम्न भाग में रहे हए जीवों की गान की उष्मा से विराधना होती है, इसलिए अचित्त पृथ्वी पर भी आसन आदि बिछाए बिना नहीं बैठना चाहिए। ६. ( ससरक्खम्मि ख ) :
सचित्त-रज से संसृष्ट। अनुसन्धान के लिए देखिए ४.१८ की टिप्पण संख्या ६६ ।
१- (क) अ० चू० १० १८५ : अहिंसणेण अच्छणे जोगो जस्स सो अच्छणजोगो। (ख) जि० चू० पृ० २७४ : अकारो पडिसेहे वट्टइ, छण्णसद्दो हिसाए वट्टइ, जोगो मणवयणकाइओ तिविधो, ण हृदणजोगा
अच्छणजोगो तेण अच्छणजोएण निव्वग्धाएण । (ग) हा० टी०प० २२८ : 'अक्षणयोगेन' अहिंसाव्यापारेण । २- जि० चू० पृ० २७५ : तत्थ अचित्ताए तन्निस्सिया विराधिज्जति, सचित्ताए पुढवीजीवा तण्णिस्सिया य विराहिज्जति । ३- (क) अ० चू० पृ० १८५ : 'भित्ती' तडी।
(ख) जि० चू० पृ० २७५ : भित्तिमादि णदितडीतो जवोवद्दलिया सा भित्ती भन्नति ।
(ग) हा टी०प० २२८ : 'भित्ति' तटीम् । ४--(क) अ० चू० ५० १८५ : असत्योबहता सुद्धपुढवी, सत्थोवहतावि कंबलिमातीहि अणंतरिया ।
(ख) जि० चू० पृ० २७५ : सुद्धपुढवी नाम न सत्थोवहता, असत्योबहयावि जा णो वत्थंतरिया सा सुद्धपढवी भण्णइ ।
(ग) हा० टो० प० २२८ : 'शुद्धपृथिव्याम्' अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायाम् । ५ –जि० चू० पृ० २७५ : त थ सचित्तपुढवीए गायउण्हाए विराधिज्जइ, अच्चित्ताए एयाए पति (गायआ) सणायी गुंडिज्जंति,
हेछिल्ला वा तण्णिस्सिता सत्ता उण्हाए विराधिज्जति । ६--(क) जि० चू० पृ० २७५ : सस रवखं नाम जंमि सच्चित्तरतो वाउ तो तमासणं ससरपखं भण्णइ ।
(ख) हा० टी० प० २२८ : 'सरजस्के वा' पृथ्वीरजोऽवगुण्ठिते वा।
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