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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ३०८ अध्ययन ६ : श्लोक ७ टि० १३-१४ सिंह स्थविर ने वैकल्पिक रूप से खण्डफुल्ल' शब्द मानकर उसका अर्थ विकल किया है । अखण्डफुल्ल अर्थात् अविकल-सम्पूर्ण' । श्लोक ७: १३. आचार के अठारह स्थान हैं ( दस अ य ठाणाई क ): आचार के अठारह स्थान निम्नोक्त हैं : १. अहिंसा १०. वायुकाय-संयम २. सत्य ११. वनस्पतिकाय-संयम ३. अचौर्य १२. सकाय-संयम ४. ब्रह्मचर्य १३. अकल्प वर्जन ५. अपरिग्रह १४. गृहि-भाजन-वर्जन ६. रात्रि-भोजन त्याग १५. पर्यंक-वर्जन ७. पृथ्वीकाय-संयम १६. गृहान्त र निषद्या-वर्जन ८. अप्काय-संयम १७. स्नान-बर्जन ६. तेजस्काय-संयम १८. विभूषा-वर्जन १४. श्लोक ७: कुछ प्रतियों में आठवाँ इलोक 'वय छक्क' भूल में लिखा हुआ है किन्तु यह दशवकालिक की नियुक्ति का श्लोक है। चूणिकार और टीकाकार ने इसे नियुक्ति के श्लोक के रूप में अपनी व्याख्या में स्थान दिया है । हरिभद्रसूरि भी इन दोनों नियुक्ति-गाथाओं को उद्धृत करते हैं और प्रस्तुत गाथा के पूर्व लिखते हैं : "कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकार: वय छक्कं कायछक्क, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं" || (हा० टी० ५० १६६) दोनों चूणियों में गिहिणिसेज्जा' ऐसा पाठ है जबकि टीका में केवल 'निसेज्जा' ही है। कुछ प्राचीन आदर्शों में नियुक्तिगाथेयम्' लिख कर यह श्लोक उद्धृत किया हुआ मिला है। संभव है पहले इस संकेत के साथ लिखा जाता था और बाद में यह संकेत छूट गया और वह मूल के रूप में लिखा जाने लगा। वादिवेताल शान्तिसूरि ने इस श्लोक को शय्यंभव की रचना के रूप में उद्धृत किया है। समवायाङ्ग (१८) में यह सूत्र इस प्रकार है : समणाणं निग्गंथाणं सखुड्डय-विअत्ताणं अट्ठारस ठाणा प० तं० वयछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहि भायणं । पलियंक निसिज्जा य सिणाणं सोभवज्जणं ।। १-अ० चू० पृ० १४४ : 'खण्डा' विकला, फुल्ला-णट्ठा, अकारेण पडिसेहो उभयमणुसरति......अहवाऽविकलमेव खण्डफुल्लं । २--(क) अ० चू० पृ० १४४ : निग्गं थभावातो भस्सति, एतस्स चेव अत्थस्स वित्यारणे इमा निज्जुत्ती --"अट्ठारस ठाणाइ" गाहा। कंठा । तेसि विवरणथमिमा निज्जुत्ती ---"वयछक्कं कायछक्क" गाहा । (ख) जि० चू०१० २१६ : निर्गन्थभावाओ भण्ण (स्स) ति, एस चेव अत्यो सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णति तं० 'अट्ठारस ठाणाई" गाथा भाणियव्वा कयराणि पुण अट्ठारसठाणाई ?, एत्थ इमाए सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णइ-वयछक्कं कायछक्कं ।' ३-उत्त० बृ० वृ० पृ०२० : शय्यम्भवप्रणीताचारकथायामपि “वयछक्ककायछक्क" मित्यादिनाऽऽचारप्रक्रमेऽप्यनाचारवचनम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org w
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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