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________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) १५. सूक्ष्म रूप से ( निउणं) 1 अगस्त्य पूगि के अनुसार 'निउण' शब्द 'दिट्ठा' का किया विशेषण है जिनदास चूर्णि और टीकाकार के अनुसार यह 'अहिंसा' का विशेषण है। इलोक ६ १. क्रोध हेतुक मृषावाद : जैसे २. मान हेतुक मृषावाद जैसे ३. मदावाद जैसे ४. लोभ-हेतुक मृषावाद : जैसे ५. भय-हेतुक मृषावाद जैसे ३०६ श्लोक ८ : १६. जान या अजान में ( ते जाणमजाणं वा ) हिंसा दो प्रकार से होती है-जान में या अजान में जान-बूझकर हिंसा करने वालों में राग-द्वेष की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है और अजान में हिंसा करने वालों में अनुपयोग या प्रमाद होता है। श्लोक ११: १७. क्रोध से ( कोहा ख ) : मृषावाद के छह कारण है क्रोध, मान, माया, लोभ, भय और हास्य । दूसरे महाव्रत में क्रोध, लोभ, हास्य और भय इन चारों का निर्देश है। यहाँ कां और भय इन दो कारणों का उल्लेख है । चूर्णि और टीका ने इनको सांकेतिक मानकर सभी कारणों को समझ लेने का संकेत दिया है । अध्ययन ६ : श्लोक ८-११ टि० १५-१८ ६. हास्यवाद कुतूहल बोल तू दास है इस प्रकार कहना । अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को बहुश्रुत कहना । मान से जी चुराने के लिए और में पीड़ा है' यों कहना। Jain Education International सरस भोजन की प्राप्ति होते देख एषणीय नीरस को अनेषणीय कहना । दोष सेवन कर प्रायश्चित्त के भय से उसे स्वीकृत करना । १८. पीड़ाकारक सत्य और असत्य न बोले ( हिंसगं न मुलं बूया ग ) : 'हिंसक' शब्द के द्वारा परपीड़ाकारी सत्य वचन बोलने का निषेध और 'मृषा' शब्द के द्वारा सब प्रकार के मृषावाद का निषेध किया गया है । १- अ० ० पृ० १४४: निपुणं सव्वपाकारं सव्वसत्तगता इति । २ (क) जि० चू० पृ० २१७ : 'निउणा' नाम सव्वजीवाणं सव्वे वाहि अणववाएण, जेणं उद्द े सियादीणि भुंजंति ते तहेव हिसगा भवन्ति, जीवाजीवेहि संजमोति सव्वजीवेसु अविसेसेण संजमो जम्हा अओ अहिंसा जिणसासणे निउणा, ण अण्णत्थ । (ख) हा टी० प० १९६ निपुणा आधारिभोगतः कृतकारिता विपरिहारेण सूक्ष्मा । (क) जि० ० ० २१७'मा नाम निविते ३. रामोसाभिभूओ पाए, अनागमानो नाम अपदुस्समाणो अगुव ओगेणं इ' दियाइणावी पमातेण घातयति । (ख) हा० टी० प० १६६ : तान् जानन् रागाद्यभिभूतो व्यापादनबुध्या अजानन्वा प्रमादपारतन्त्र्येण । ४ ० ० ० २१८ को मागमायामाथि गहिया। हा० डी० ५० ११७ फोडा पास इत्यादि एक लभातीयहण' मिति मानाद्वा अत एवाहं बहुत इत्यादि मापात भिक्षाटन परिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैवणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि, यदि वा 'मयात् किञ्चितिथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि एवं हास्याविष्यपि वाच्यम् । ६ (क) अ० पू० १० १४५ सिगं सम्यमवि पोडाकारि, मुसावितहं समुभयं न बूया न वसेज (ख) जि० चू० पृ० २१८: 'हिंसगं' नाम जेण सच्चेण भणिएन पीडा उत्पज्जइ तं हिंसगं अपि, अपि च न तच्चवचनं सत्यमतच्चवचनं न च यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमितरं मृषा । 7 For Private & Personal Use Only ण पस्सामित्ति, सच्चमेव तं www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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