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दसवेलियं ( दशर्वकालिक )
११. सब साधुओं द्वारा हित है ( सय्यसाहूहि गरहिओ
मृषावाद सब साधुओं द्वारा गर्हित है। इसके समर्थन में चूर्णिकार ने लिखा है कि बौद्ध आदि साधु भी मृषावाद की गर्दा करते हैं । उनके पाँच शिक्षा-पदों में 'मृषावाद परिहार' को अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसका महत्व इसलिए है कि इसकी आराधना के बिना शेष शिक्षा-पदों की आराधना संभव नहीं होती ।
२१. अल्प या बहुत ( अप्पं बहुं ख ) :
३१०
श्लोक १२ :
)
एक श्रावक था । उसने मृषावाद को छोड़ चार अणुव्रत ग्रहण किए मृषावाद का परित्याग नहीं किया। कुछ समय पश्चात् वह एक-एक कर सभी व्रत तोड़ने लगा। एक बार उसके मित्र ने कहा- "तुम व्रतों को क्यों तोड़ते हो ?" उसने उत्तर दिया- "नहीं तो, मैं व्रतों को कहाँ तोड़ता हूँ ?" मित्र ने कहा "तुम झूठ बोलते हो ।" उसने कहा- "मैंने झूठ बोलने का त्याग कब किया था ?" सत्यशिक्षापद के अभाव में उसने सारे व्रत तोड़ डाले ।
श्लोक १३:
२०. सजीव या निर्जीव ( चित्तमंतमचित्तं क ) :
चतुष्पद
जिसमें ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली बेतना हो उसे चित्तवान् और चेतनारहित को अचित्त' कहते हैं द्विपद और अपद ये 'चितवान्' और हिरण्य आदि अत्ति हैं।
अल्प और बहुत के प्रमाण तथा मूल्य की दृष्टि से चार विकल्प बनते हैं :
( १ ) प्रमाण से अल्प मूल्य से बहुत ।
(२) प्रमाण से बहुत मूल्य से अल्प ।
ग
२२. दन्तशोधन ( दन्तसोहण " ) :
ख
अध्ययन ६ श्लोक १२-१५ टि० १९-२३
(३) प्रमाण से अल्प मूल्य से अल्प ।
(४) प्रमाण से बहुत मूल्य से बहुत ।
मुनि इनमें से किसी भी विकल्प वाली वस्तु को स्वामी की आज्ञा लिए बिना ग्रहण न करे ।
चरक में 'दन्तशोधन' को दन्तपवन और दन्तविशोधन कहा है। वृद्ध वाल्लट ने इसे दन्तधावन कहा है। मिलिन्दपन्ह में इसके स्थान में 'दन्तपोण' और दशर्वकालिक में 'दन्तवण' का प्रयोग हुआ है ।
श्लोक १५ :
२३. घोर ( घोरं क ) :
घोर का अर्थ भयानक या रौद्र है। अब्रह्मचारी के मन में दया का मात्र नहीं रहता। अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त मनुष्य के लिए ऐसा
४ च० सूत्र अ० ५.७१-७२ ।
५ - च० पूर्वभाग पृ० ४६
१- (क) जि० चू० पृ० २१८ : जो सो मुसावाओ, एस सव्वसाहूहि गरहिओ सक्कादिणोऽवि मुसावादं गरहंति, तत्थ सक्काणं पंचन्हं सिक्खावयाणं मुसावाओ भारियतरोत्ति, एत्थ उदाहरणं एगेण उवासएण मुसावायवज्जाणि चत्तारि सिक्खावयाणि गहियाणि तत्र सो तानि जिउमारो, अष्णेष व भणिओ, जहा शिमेवाणि भंजसि ? तभी तो अमिष्या नाहं भजामि । ण मए मुसावायस्स पच्चक्खा यं तेसिपि सव्वाहियया णिच्छिता । एतेण कारणेण तेसिपि मुसावाओ भुज्जो सत्यसाहित
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(ख) हा० टी० प० १९७ : सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः 'गर्हितो' निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात् । २- जि०
० चू० पृ० २१८-१६ : चित्त नाम चेतणा भण्णइ, सा च चेतणा जस्स अत्थि तं चित्तमंतं भण्णइ तं दुपयं चउप्पयं अप वा होज्जा, 'अचित्त' नाम हिरण्णादि ।
३-जि० पू० पृ० २१२ अप्यं नाग पमाणओ मुल्लओ य, बहुमवि माओ त्सओ व
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