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________________ महाया कहा ( महाचारकथा ) ३११ अध्ययन ६ श्लोक १६-१७ टि०२४-२६ कोई भी कार्य नहीं होता जिसे वह न कह सके या न कर सके । अर्थात् अब्रह्मचारी रौद्र बन जाता है। इसलिए अब्रह्मचर्य को 'घोर' कहा गया है। ख २४. प्रमाद - जनक ( पमायं ): ब्रह्मचर्य इन्द्रिय का प्रमाद है। अब्रह्मचर्य से मनुष्य प्रमत्त हो जाता है । यह सब मनुष्य का सारा आचार और क्रिया-कलाप प्रमादमय या भूलों से परिपूर्ण वन जाता है। गया है । २५. दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है ( दुरहिद्विषं जिनदास के अनुसार अब्रह्मचर्यं घृणा प्राप्त कराने वाला होता है, इसलिए उसे 'दुरधिष्ठित' कहा गया है। अगस्त्य चूर्णि के अनुसार अब्रह्मचर्यं जुगुप्सित जनों द्वारा अधिष्ठित - आश्रित हैं। इसका दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि अब्रह्मचर्य जन्म-मरण की अनन्त परम्परा का हेतु है यह जानने वाले के लिए वह सहजनवा सेवनीय नहीं होता। इसलिए उसे संगति के लिए सुरक्षित' कहा गया है। २६. चरित्र भंग के स्थान से बचने वाले ( भैयाययणवजिणो प ) : चरित्र-भेद का आयतन (स्थान) मैथुन है। इसका वर्जन करने वाले 'भेदायतनवर्जी' कहलाते हैं । श्लोक १६ : २७. मूल (मूलं): मूल, बीज और प्रतिष्ठान ये एकार्थक शब्द है। २९. समुद्र-लवण (उम्मेद) उद्भिज लवण दो प्रकार का होता है (१) समुद्र के पानी से बनाया जाने वाला । ख इलोक १७ : २८. बिड लवण ( बिडं क ) : यह कृत्रिम लवण गोमूत्र आदि में पकाकर तैयार किया जाता है । अतः यह प्रासुक ही होता है । ) : ): प्रमादों का मूल है। इसमें आसक्त इसलिए अब्रह्मचर्य को 'प्रमाद' कहा १- (क) अ० चू० पृ० १४६ : घोरं भयाणगं । (ख) जि० चू० पृ० २१६ : घोरं नाम निरणुक्कोसं, कीं ? अबंभपवत्तो हि ण किचि तं अकिच्चं जं सो न भणइ । (ग) हा० टी० प० १६८ "पोरं रौद्र रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात । २- अ० चू० पृ० १४६ : स एवइ दियप्पमातो । ३– (क) जि० चू० पृ० २१६ : जम्हा एतेण पमत्तो भवति अतो पमादं भणइ, तं च सव्वपमादाणं आदी, अहवा सव्वं चरणकरणं तंमि वट्टमाणे पमादेतित्ति । (ख) हा० टी० प० १६८ : 'प्रमादं' प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् । ४ - वि० पू० पृ० २१९ ५-- अ० चू० पृ० १४६ ६० डी० प० १६० Jain Education International दुरहिट्ठियं नाम गुच्यं पाव तमहतोत्ति दुरहिद्विषं । 'दुरहिट्ठियं' दुगु छियाधिट्ठितं । 'दुराचयं' दुस्सेवं विदितजिनवचनानन्त संसारहेतुस्यात् । ७ (क) वि० ० ० २१६ भिजाई जेण परिपाली सो भेदो तस्स भेदस्य पसूती आवतगं मेहणंति व भेदायतणं यति । , (ख) हा० टी० प० १६८ : भेद: -- चारित्रभेदस्तदायतनं-- तत्स्थानमिदमवोक्तन्यायात्तद्वाजिनः -- चारित्रातिचारभीरवः । ८- जि० चू० पृ० २१९ मूलं नाम बीयंति वा पट्टाणंति वा मूलंति वा एगट्टा । E -- (क) अ० चू० पृ० १४६ : 'विडं' जं पागजात तं फासुगं । (ख) जि० ० पृ० २२० : बिलं (डं) गोमुत्तादीहिं पविऊण कित्तिमं कीरइ... अहवा बिलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहणं क्रयं । (ग) हा० टी० प० ११८ 'बि' योमूत्रादिपश्वम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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