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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) (२) खानों से निकलने वाला यहाँ 'सामुद्रिक' लवण का ग्रहण किया है । यह अप्रासुक होता है' । ३०. -गुड़ (फाणिय) ३१२ गहने 'फाणित' का अर्थ-विकार और हरि ने द्रव-गुड़ किया है। भावप्रकाश के अनुसार कुछ गाढ़ और बहुत तरल ऐसे पकाए हुए ईख के रस को 'फाणित' कहा जाता है । ३१. संग्रह (सन्निहि ग) : लवण आदि वस्तुओं का संग्रह करना, उन्हें अपने पास रखना या रात को रखना 'सन्निधि' कहलाता है। जो लवण आदि द्रव्य चिरकाल तक रखे जा सकते हैं उन्हें अविनाशी द्रव्य और जो दूध, दही थोड़े समय तक टिकते हैं उन्हें विनाशी द्रव्य कहा जाता है । यहाँ अविनाशी द्रव्यों के संग्रह को 'सन्निधि' कहा है'। निशीथ घूणि के अनुसार विनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सन्निधि' और अविनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सञ्चय' कहा जाता है। अध्ययन ६ श्लोक १८ टि० ३०-३३ : श्लोक १८ : ३२. श्लोक १८ : व्यवहार भाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने इस श्लोक के स्थान पर दशर्वकालिक का उल्लेख करते हुए जो श्लोक उद्धृत किया है, उसके प्रथम तीन चरण इससे सर्वथा भिन्न हैं । वह इस प्रकार है - यत् दशवेकालिके उक्तमशनं पानं खादिमं तथा संचयं न कुर्यात् तथा च तद्ग्रन्थ: : ७-३० ० ० १४७ ६०० पृ० २२० असणं पाणगं चैव खाइमं साइमं तहा । ३३. प्रभाव (अणुफासो क) : अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'अनुस्पर्श' का अर्थ अनुसरण या अनुगमन किया है और जिनदास महत्तर ने अनुभाव - सामर्थ्य या प्रभाव किया है। Jain Education International सह कुवा, गिट्टी पम्पइएन से ।" (०५० उ०५ गा० ११४) १ – (क) अ० च० पृ० १४६ : 'उब्भेइम' सामुद्दोति लवणागरेसु समुष्पज्जति तं अफासुगं । (ख) हा० टी० प० १६८ : 'उभेद्य' सामुद्रादि । (ग) जि० ० ० २२० उमरगहण सामुदायीक ग्रहणं कथं । २ (क) अ० ० ० १४६ 'फाणित उपविकारो (ख) हा० टी० प० १६८ : फाणितं द्रवगुड़ः । ३ शा० नि० भू० पृ० १०८४ : इक्षोरसस्तु यः पक्वः किञ्चिद्गाढो बहुद्रवः । स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंज्ञया ॥ ४- (क) जि० चू० पृ० २२ : 'सन्निधि' नाम एतेसि दव्वाणं, जा परिवासणा सा सन्निधी भण्णति । (ख) हा० टी० प० १६८: 'संनिधि कुर्वन्ति' पर्युषितं स्थापयन्ति । ५- जि० १० चू० पृ० २२० एताणि अविणासिदव्वाणि न कप्पंति, किमंग पुण रसादीणि विणासिदव्वाणिति ?, एवमादि सणिधि न ते साधवो भगवन्तो णायपुत्तस्स वयणे रया इच्छति । ६ - नि० ० उ० ८. सू० १७. चू० : सन्निही णाम दधिखीरादि जं विणासि दव्वं, जं पुण अविणासि दव्वं, चिरमवि अच्छइण विणस्सइ, सो संचतो । 'घयतेल्ल-वत्थ- पत्त- गुल- खंड- सक्कराइयं अनुसरणमणुवमो अनुकासो अगुफासो नाम अणुभावो भणति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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