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महायारकहा (महाचारकथा)
अध्ययन६:श्लोक १४ टि०३४-३५ ३४. मैं मानता हूँ ( मन्ने ख ) :
यह क्रिया है । अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार इसका कर्ता शय्यम्भव है। जिनदास महत्तर के अनुसार इसका कर्ता तीर्थङ्कर है। हरिभद्र सूरी के अभिमत में प्राकृत-शैली के अनुसार इसका पुरुष परिवर्तन होता है । ३५. ( अन्नयरामविल ) :
धुणिकार के अनुसार यह सामान्य निर्देश है इसलिए इसका लिङ्ग नपुंसक है। हरिभद्र सूरी ने इसे सन्निधि का विशेषण माना है। किन्तु 'सन्निधि' पुंलिङ्ग-शब्द है इसलिए यह चिन्तनीय है । ३६. ( सिया ग ) :
अगस्त्यसिंह स्थविर ने सिया को क्रिया माना है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरी ने 'सिया' का अर्थ कदाचित् किया है। ३७. ( सन्निहीकामे ग) :
चणिकारों ने सन्निधिकाम'-..- यह एक शब्द माना है। टीकाकार ने 'कामे' को क्रिया माना है। उनके अनुसार 'सन्निहिं कामे' ऐसा पाठ बनता है ।
श्लोक १६: ३८. संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ( संजमलज्जट्ठा ग ) : वहाँ वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन रखने के दो प्रयोजन बतलाए गए हैं
(१) संयम के निमित्त ।
(२) लज्जा के निमित्त। शीतकाल में शीत से पीड़ित होकर मुनि अग्नि सेवन न करे; उसके लिए वस्त्र रखने का विधान किया गया है। पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए पात्र रखने का विधान किया गया है। पानी के जीवों की रक्षा के लिए कम्बल (वर्षाकल्प) रखने का विधान किया गया है । लज्जा के निमित्त 'चोलपट्टक' रखने का विधान है।
व्याख्याकारों ने संयम और लज्जा को अभिन्न भी माना है । वहाँ 'संयम की रक्षा के लिए'--यह एक ही प्रयोजन फलित होता है ।
१-अ० चू० पू० १४७ : मणगपिता गणहरो सयं वाजत्था अप्पणो अभिप्पायमाह-मण्णे एवं जाणामि । २... जि० चू०प० २२० : मन्ने णाम तित्थंकरो वा एवमाह । ३-हाटी० ५० १६८ : 'मन्ये' भन्यन्ते, प्राकृतशैल्या एकवचनम, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः । ४ ---(क) अ० चू० : अण्णत रामिति विडातीणं किंचि जहा अण्णं निहिज्जति ।
(ख) जि० चू०प० २२० : अन्नतरं णाम तिलतुसतिभागमेत्तमवि, अहवा अन्नयरं असणादी। ५-हा० टी०प० १९८ : 'अन्यतरामपि' स्तोकामपि । ६-अ० चू०प०१४७ : सियादिति भवेज्ज'। ७-(क) जि० चू० पृ० २२० : "सिया कदापि' ।
(ख) हा०टी०प० १९८ : 'यः स्यात' यः कदाचित । ८-(क) अ० चू०प०१४७ : सण्णिधी भणितो, तं कामयतीति सगिणधीकामो।
(ख) जि० चू०पृ० २२० : सपिणहि कामयतीति सन्निहिकामी । 8-हा० टी०प० १९८: कदाचित्संनिधि कामयते' सेवते। १०-(क) जि. चु० पृ. २२१: एतेसि वत्थावीणं जं धारणं तमवि, संजमनि मतं वा बत्थस्स गहणं कीरइ, मा तस्स अभावे
अग्गिसेवणादि दोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तारसाडणादी दोसा भविस्सति कम्बलं वासकप्पादी तं उदगादिरक्खणडाघेप्पति, लज्जानिमित्तं चोलपटको घेप्पति. अहवा संजमो चेच लज्जा, भणितं च - इह तो लज्जा नाम लज्जा
मंतो भष्णइ, संजममंतो.त वुत्तं भवति," एताणि वत्यादीणि संजमलज्जट्ठा । (ख) हा टी० ५० १६६ : 'सयमलज्जार्थ' मिति संधमार्थ पात्रादि, तद्व्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालना
भावात्, लज्जार्थं वस्त्रं, तव्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्ट श्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयति ।
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