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________________ महायारकहा ( महाचारकथा ) ३०७ 'राजन्य' का अर्थ राजवंशीय या सामन्त तथा बैठि का वर्ष ग्राम-महत्तर (याम-शासक) या श्रीदेवता वाला है। ७. आचार का विषय ( आधारगोवरोध ) : आचार के विषय को 'आचार-गोचर' कहते हैं । स्थानाङ्ग वृत्ति के अनुसार साधु के आचार के अङ्गभूत छह व्रतों को 'आचारगोचर कहा जाता है । वहाँ आचार और गोचर का अर्थ स्वतन्त्र भाव से भी किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यप्रकार का आचार है । गोचर का अर्थ है 'भिक्षाचरी" । -यह पाँच श्लोक ३ : ८. शिक्षा में ( सिक्खाए ग ) : शिक्षा दो प्रकार की होती है ग्रहण और आसेवन सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना ग्रहण शिक्षा है । आवार का सेवन और अनाचार का वर्जन आसेवन शिक्षा कहलाती है । श्लोक ४ : ९. ( हंदि क ) : यह अव्यय है इसका अर्थ है – उपदर्शन* । --- अध्ययन ६ श्लोक ३-६ टि० ७-१२ : धारण करने १०. मोक्ष चाहने वाले ( धम्मत्थकामाणं क चारित्र आदि धर्म का प्रयोजन मोक्ष है। उसकी इच्छा करने वाले 'धर्मार्थ काम' कहलाते हैं । श्लोक ६ : ): ११. बाल वृद्ध (सखुडुगवियताणं): खुड्डग (क्षुद्रक) का अर्थ बाल और वियत्त ( व्यक्त) का अर्थ वृद्ध है । 'सखुड्डगवियत्त' का शब्दार्थ है – सबालवृद्ध । १२. अखण्ड और अस्फुटित ( अखंडफुडिया ग ) : टीकाकार के अनुसार आंशिक - विराधना न करना 'अखण्ड' और पूर्णतः विराधना न करना 'अस्फुटित' कहलाता है। अगस्त्य - १ (क) अ० चू० पृ० १३६ : आयारस्स आयारे वा गोयरो - आयारगोयरो, गोयरो (ख) हा० टी० प० १६१ 'आचारगोचर:' क्रियाकलापः । पुण २ -- स्था० ८.३.६५१ प० ४१८ वृ० : 'आचार: ' साधुसमाचारस्तस्य गोचरो - विषयो व्रतषटका दिराचारगोचरः अथवा आचारश्चज्ञानादिविषयः पञ्चधा गोचरराव भिक्षाचयत्याचारगोचरम् । विसयो । ३- जि० चू० पृ० २०९ सिक्खा दुविधा, तंजहा गहण सिक्खा आसेवणासिक्खा य, गहण सिक्खा नाम सुत्तस्थाणं गहणं, आसेवासक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा तेसि कारणं संफासणं, अकर णिज्जाण य वज्जणया । ४० टी० १० १२२ हंदि ति हम्दीत्युपप्रदर्शने । हा०] [टी० [१०] १९२ धर्मः चारिधर्मादिस्तस्यार्थ प्रयोजनं मोलस्तं मच्छन्तीति विशुद्ध विहितानुष्ठान करणे. नेति धर्मार्थकामा - मुमुक्षवस्तेषाम् । ६— (क) अ० चू० पृ० १४३ : खुड्डगो बालो, वियत्तो व्यक्त इति सबुड्डएहिं वियत्ता सखुड्डग वियत्ता, तेसि । (ख) जि० ० ० २१६ सहा दिवसा नाम महत्वा तेति खुगवियत्ताणं' बालबुद्धाति पुत Jain Education International भवइ । (ग) हा० टी० प० ११५ सह द्रव्यभावा वर्तसे व्यस्तास्यभाववृद्वास्तेषां सशुल्कव्यक्तान सबालवृद्धानाम् । ७ - हा० टी० प० १६५-६६ : अखण्डा देशविराधनापरित्यागेन, अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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