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दसवेआलियं (दशर्वकालिक )
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अध्ययन ६ श्लोक २ टि० ५-६
( उद्यानिका ) करते हों । समवायांग वृत्तिकार ने भी इसका यही अर्थ किया है । आज की भाषा में उद्यान को पिकनिक प्लेस ( गोष्ठीस्थल ) कहा जा सकता है ।
इलोक २ : ):
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५. राजा और उनके अमात्य ( रायाणो रायमच्चा
पूर्णि-द्वय अमात्य का अर्थ दण्डनायक, सेनापति आदि किया है। टीकाकार ने इसका अर्थ मन्त्री किया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र की व्याख्या में 'अमात्य' को कर्मसचिव और राजा का सहायक माना गया है। 'अमात्य' को महामात्र और प्रधान भी कहा जाता है । शुक्र ने अमात्य का मन्त्रिपरिषद् में नवां स्थान माना है। उनके अनुसार देश-काल का विशेष ज्ञाता 'अमात्य' कहलाता है। राज्य में
कितने गाँव कितने नगर और कितने अरण्य हैं ? कितनी भूमि जोती गई ? उसमें से राज्य को कितना अंश प्राप्त हो चुका है ? कितना
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अभी प्राप्त करना है ? कितनी भूमि बिना जोती रह गई ? इस वर्ष कितना कर लगाया गया ? भाग, दण्ड, शुल्क आदि से प्राप्तव्य धन कितना है ? बिना जोती भूमि से कितना अन्न उत्पन्न हुआ ? वन में कौन-कौन सी वस्तुएँ उत्पन्न हुई ? खानों में कितना धन उत्पन्न हुआ ? खानों के रत्न आदि से कितनी आय हुई ? कितनी भूमि स्वामी-हीन हो गई ? कितनी उपज मारी गई और कितनी उपज चोरों के हाथ लगी ? इन समस्त विषयों पर विचार करना और फिर उसका विवरण राजा के समक्ष प्रस्तुत करना अमात्य का कर्तव्य माना गया है" । इस तरह यह मन्त्रिपरिषद् का सदस्य कृषि, व्यापार आदि विभागों का अध्यक्ष रहा होगा ।
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६, क्षत्रिय ( सत्तिया ) :
अगस्त्य सिंह ने 'क्षत्रिय' का अर्थ 'राजन्य' आदि किया है" । जिनदास के अनुसार कोई कोई क्षत्रिय होता है, राजा नहीं भी होता यहां उन क्षत्रियों का उल्लेख है जो राजा नहीं हैं" आदि किया है ।
१ - नि० उ०८. सू० २. चू० : उज्जाणं जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, जं वा ईसि नगरस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं । २ - सम० ११७ वृ० : बहुजनो यत्र भोजनार्थं यातीति
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३ - ( क ) अ० चू० पृ० १३८ : रायमत्ता अमच्च सेणावतिपभितयो ।
(ख) जि०
० चू० पृ० २०८ : रायमच्चा अमच्चा, डंडणायगा सेणावइप्पभितयो । ४- हा० टी० प० १६१: 'राजामात्याश्च' मन्त्रिणः ।
५- कौटि० अ० ८.४ पृ० ४४ ।
६ - वही, ८.४ पृष्ठ ४१ अमात्या नाम राज्ञः सहायाः ।
७०वि०३.२०४ स्वोपज्ञवृत्ति महामात्राः प्रधानानि अमात्यपुरोहितसे नापत्यादयः ।
८- शु० २.७०-७२ ।
६- शु० २.८६ : देशकालप्रविज्ञाता ह्यमात्य इति कथ्यते 1
१० शु० २.१०२-५ : पुराणि च कति ग्रामा अरण्यानि च सन्ति हि ।
कषिता कति भूः केन प्राप्तो भागस्ततः कति ॥ भागशेषं स्थितं कस्मिन् कत्यकृष्टा च भूमिका । भागद्रव्यं वत्सरेऽस्मिञ्झुल्कदण्डादिजं कति ॥ अकृष्टपच्यं कति च कति चारण्यसंभवम् । कति चाकरसंजातं निविप्राप्तं कतीति च ॥ अस्वामिकं कति प्राप्तं नाष्टिकं तस्कराहृतम् । सञ्चितन्तु विनिश्चित्यामात्यो राज्ञे निवेदयेत् ॥ १३८ : 'खत्तिया' राइण्णादयो ।
राजा होता है, क्षत्रिय नहीं भी होता, हरिभद्र ने 'क्षत्रिय का अर्थ श्रेष्ठ
११- अ० चू० पृ०
१२- जि० चू० पृ० २०८-९ : 'खत्तिया' नाम कोइ राया भवइ ण खत्तियो, अन्नो खत्तियो भवति ण उ राया, तत्थ जे खत्तिया ण राया तेसि गणं कथं ।
१३- हा० टी० प० १६१ : 'क्षत्रियाः ' श्रेष्ठयादयः ।
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