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टिप्पण : अध्ययन ६
श्लोक १:
१. ज्ञान ( नाण क):
ज्ञान-सम्पन्न के चार विकल्प होते हैं(१) दो ज्ञान से सम्पन्न - मति और श्रुत से युक्त । (२) तीन ज्ञान से सम्पन्न -- मति, श्रुत और अवधि से युक्त अथवा मति, श्रुत और मनःपर्याय से युक्त । (३) चार ज्ञान से सम्पन्न -मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय से युक्त । (४) एक ज्ञान से सम्पन्न-केवलज्ञान से युक्त ।
आचार्य इन चारों में से किसी भी विकल्प से सम्पन्न हो सकते हैं। २. दर्शन (दसण क ):
दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न होने वाला सामान्यबोध दर्श नकहलाता है। ३. आगम-सम्पन्न ( आगमसंपन्न ग ) :
आगम का अर्थ श्रुत या सूत्र है । चतुर्दश-पूर्वी, एकादश अङ्गों के अध्येता या वाचक तथा स्वसमय-परसमय को जाननेवाले 'आगमसंपन्न' कहलाते हैं । 'ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न'-इस विशेषण से प्राप्त विज्ञान की महत्ता और 'आगम-सम्पन्न' से दूसरों को ज्ञान देने की क्षमता बताई गई है। इसलिए ये दोनों विशेषण अपना स्वतंत्र अर्थ रखते हैं। ४. उद्यान में ( उज्जाणम्मि घ):
जहाँ क्रीड़ा के लिए लोग जाते हैं वह 'उद्यान' कहलाता है। यह उद्यान शब्द का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है। अभिधान चिन्तामणि के अनुसार 'उद्यान' का अर्थ क्रीड़ा-उपवन है । जीवाभिगम वृत्ति के अनुसार पुष्प आदि अच्छे वृक्षों से सम्पन्न और उत्सव आदि में बहुजन उपभोग्य स्थान 'उद्यान' कहलाता है । निशीथ चूर्णिकार के अनुसार उद्यान का अर्थ है-नगर के समीप का वह स्थान जहाँ लोग सहभोज
१ अ० चू० पृ० १३८ : नाणं पंचविहं मति-सुया-ऽवधि-मणपज्जव-केवलणामधेयं ... 'तत्य तं दोहि वा मतिसुत्तेहि, तिहि वा
मतिसुतावहोहिं अहवा मतिसुयमणपज्जर्वेहि, चतुहि वा मतिसुतावहीहि मणपज्जवेहि, एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं । २ जि० चू०प० २०७ : दर्शन द्विप्रकारं क्षायिक क्षायोपशमिकं च, अतस्तेन क्षायिकेग क्षायोपशमिकेन वा संपन्नम् । ३--(क) अ० चू० पृ० १३८ : आगमो सुतमेव अतो तं चोद्दसपुवि एकारसंगसुयधरं वा।
(ख) जि० चू० पृ० २०८ : आगमसंपन्नं नाम वायगं, एक्कारसंग च, अन्नं वा ससमयपरसमयवियाणगं ।
(ग) हा० टी० ५० १६१ : 'आगमसंपन्न' विशिष्टश्रुतधर, बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । ४-(क) अ० चू० पु० १३८ : नाणदंसणसंपण्णमिति एतेण आतगतं विण्णाणमाहप्पं भण्णति, 'गणि आगमसंपण्णं' एतेण परग्गाहण
सामथसंपण्णं । 'संपण्णमिति' सहपुणरुत्तमवि न भवति, पढमे सयं संपण्णं, बितिये परसंघातगं एयं समरूवता । ५–हला० : उद्याति क्रीडार्थमस्मिन् । ६-अ० चि० ४.१७८ : आक्रीड: पुनरुद्यानम् । ७-जीव० सू० २५८ वृ० : उद्यानं-पुष्पादि सद्वृक्षसंकुलमुत्सवादौ बहुजनोपभोग्यम् ।
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