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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
६२ "तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा | जावज्जीवं वयं घोरं असणाण महि"
६३ सिगाणं
लोडं
अदुवा क
पउमगाणि
गाय सुव्वट्टणट्टाए नायरंति कयाइ
६५. विभूसावत्तियं
कम्मं बंधइ
संसारसायरे जेणं
वि ॥
६४ - नगिणस्स वा वि मुंडस्स दोहरोमनहंसिणो मेहुणा उवसंतस्स
किं विभूसाए कारियं ॥
पडइ
६६ - विभूसावत्तियं
बुद्धा सावज्जबहुलं
नेयं
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मन्नंति
॥
ताईह
य |
भिक्खू
चिक्कणं ।
घोरे
बुतरे ॥
चेयं
तारिसं ।
चेयं
सेवियं ॥
६७ - खवेंति अप्पाणममोहदंसिणो
तवे रया संजम अज्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई नवाइ पावाई न ते करेति ॥
६८ - सभोवता अममा अकिंचणा सविज्जविज्जानुगया जसंसिणो । उउपसन्ने विमले व चंदिमा सिद्धि विमाणाइ उति ताइणो ॥ -त्ति बेमि ॥
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तस्मात्ते न स्नान्ति,
शीतेन उष्णेन वा ।
यावज्जीवं व्रतं घोरं,
अस्नानधिष्ठातारः ॥ ६२ ॥
स्नानमथवा कल्कं
लोध्रं पद्मकानि च ।
मात्रस्वोदनार्थ
नाचरन्ति कदाचिदपि ॥ ६३ ॥
नग्नस्य वापि मुण्डस्य,
दीर्घरोमनखवतः ।
मैथुनाद् उपशान्तस्य, किवि कार्यम् ॥६४॥
विषाप्रत्ययं भ
कर्म बध्नाति चिक्कणम् । संसार सागरे घोरे,
येन पतति दुरुत्तरे ॥ ६५॥
विभूषाप्रत्ययं चेतः, बुद्धा मन्यन्ते तादृशम् । सावद्य-बहुलं चैतत्
प्रायिभिः सेवितम् ॥६६॥
क्षपयन्त्यात्मानममोहदशन:, तपसि रताः संयमार्जवे गुणे । धुन्वन्ति पापानि पुराकृतानि, नवानि पापानि न ते कुर्वन्ति ॥ ६७॥
सदोपशान्ता अममा अकिञ्चना:, स्वविद्याविद्यानुपायस्विनः । ऋतु प्रसन्ने विमल इव चन्द्रमाः, सिद्धि विमानानि उपयन्ति त्रायिणः । इति ब्रवीमि ॥
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अध्ययन श्लोक ६२-६८
:
६२ – इसलिए मुनि शीत या उष्ण जल से स्नान नहीं करते । वे जीवनपर्यन्त घोर अस्नान व्रत का पालन करते हैं ।
६३ - मुनि शरीर का उबटन करने के
प
लिए
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केसर आदि का प्रयोग नहीं करते ।
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६४ - नग्न १०१, मुण्ड, दीर्घ- रोम और नखाने तथा मैथुन से निवृत्त मुनि को विभूषा से नया प्रयोजन है ?
६२ विभूषा के द्वारा भिक्षु चिकने ( दारुण) कर्म का बन्धन करता है। उससे वह दुस्तर संसार सागर में गिरता है।
६६ - विभूषा में प्रवृत्त मन को तीर्थङ्कर विभूषा के तुल्य ही चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं। यह प्रपुर पापयुक्त है। यह छहकाय के त्राता मुनियों द्वारा आसेवित नहीं है।
६० अमोहदस", तप, संयम और ऋजुतारूप गुण में रत मुनि शरीर को १०४ कृश कर देते हैं। वे पुराकृत पाप का नाश करते हैं और नए पाप नहीं करते ।
६८ - सदा उपशान्त, ममता-रहित, अकिञ्चन, आत्मविद्यायुक्त व्यवस्थी और त्राता मुनि शरद् ऋतु के " चन्द्रमा १०७ की तरह मल-रहित होकर सिद्धि या सौधर्मावतंसक आदि विमानों को प्राप्त करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।
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