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________________ पिंडेसणा ( पिण्डेषणा ) अनादर करता है, वह सब साधुओं का अनादर करता है। जो एक साधु का आदर करता है, वह सब साधुओं का आदर करता है । २५३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक टि० २०७-२०० : ८५ कारण स्पष्ट है जिसमें साधुता, ज्ञान, दर्शन, तप और संयम है वह साधु है । साधुता जैसे एक में है वैसे सब में है । एक साधु का अपमान साधुता का अपमान है और साधुता का अपमान सब साधुओं का अपमान है। इसी प्रकार एक साधु का सम्मान साधुता का सम्मान है और साधुता का सम्मान सब साधुओं का सम्मान है । इसीलिए कहा है कि संयम प्रधान साधुओं का वैयावृत्त्य करो - भक्त पान काम करो और सब प्रतिपाती है, या अतिपाती है। 1 इन दस श्लोकों में से पहले श्लोक का प्रतिपाद्य है- भिक्षा-विशुद्धि के लिए स्थान का प्रतिलेखन । दूसरे का प्रतिपाद्य है-उपाश्रय में प्रवेश की विधि, ईर्यापथिकी का पाठ और कायोत्सर्ग । भूलों की विस्मृति- यह तीसरे का विषय है। चौथे का विषय है-उनकी आलोचना । छोटी या विस्मृत भूलों की विशुद्धि के लिए पुनः प्रतिक्रमण, चिन्तन और चिन्तनीय विषय ये पाँचवें और छट्ठे में हैं । कायोत्सर्ग पूरा करने की विधि और इसके बाद किए जाने वाले जिन संस्तव और स्वाध्याय का उल्लेख- ये सातवें श्लोक के तीन चरणों में हैं और स्वाध्याय के बाद भोजन करना यह वहाँ स्वयंगम्य है । चौथे चरण में एकाकी भोजन करने वाले मुनि के लिए विश्राम का निर्देश दिया गया है । शेष तीन श्लोकों में एकाकी भोजन करने वाले मुनि के विश्रामकालीन चिन्तन, निमंत्रण और आहार करने के वस्तुविषय का प्रतिपादन हुआ है। के लिए देखिए - प्रश्न व्याकरण ( संवरद्वार-१ : चौथी भावना ) | तुलना २०७. कदाचित् ( सिया क ) : यहाँ 'स्यात्' का प्रयोग 'यदि' के अर्थ में हुआ है। आवश्यकतावश साधु उपाश्रय में न आकर बाहर ही आहार कर सकता है । इसका उल्लेख श्लोक ८२ और ८३ में है। विशेष कारण के अभाव में साधारण विधि यह है कि जहाँ साधु ठहरा हो वहीं आकर भोजन करे । उसका विवेचन आगे किया जा रहा है । श्लोक ८८ : २०८. विनयपूर्वक ( विषएण क ): उपाश्रय में प्रवेश करते संचय नैषेधिकी का उच्चारण करते हुए अञ्जलिपूर्वक 'नमस्कार हो क्षमाश्रमण को 'ऐसा कहना विनय की पद्धति है । एक हाथ में झोली होती है इसलिए दाएं हाथ की अंगुलियों को मुकुलित कर उसे ललाट पर रख 'नमो खमासमणाणं' का उच्चारण करे । तुलना-णिक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियबो - प्रश्न व्याकरण ( संवरद्वार- ३ पाँचवीं भावना ) । , १- ओ० नि० गा० ५२६ : एक्कम्मि हीलियमी, सब्वे ते होलिया हु'ति । २ श्र० नि० गा० ५२७ : एक्कम्मि पूइयंमी, सव्वे ते पूइया हुति । ३- ओ० नि० गा० ५२६-५३१ । ४- ओ० नि० गा० ५३२ । ५ - अ० चू० पृ० १२१ : सिया य इति कदायि कस्सति एवं विता होज्जा कि मे सागारियातिसंकडे बाहिं समुद्दि ेणं ? उवस्सए चैव भविस्सति' एवं इच्छेखा एस नियतो विविरिति एवं सिवासहो । , Jain Education International ६ (क) अ० पू० १० १२२ निसीया मोसमासमा जति सोलम्बावडी तो दाहित्वमाि काऊण एतेन विणएण । (ख) जि० चू० पृ० १८८ : विणओ नाम पवितो णितीहियं काऊण 'नमो खमासमणाणं' ति भणतो जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ । (ग) हा० टी० प० १७६ : 'विनयेन' नैषेधिकी नमः क्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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