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दसवेआलियं ( दशवेकालिक )
२०६. ( अहो क ) :
व्याख्याकारों ने इसे विस्मय के अर्थ में प्रयुक्त माना है। इसे सम्बोधन के लिए भी प्रयुक्त माना जा सकता है ।
२११ (लाभ)
२५४ अध्ययन ५ ( प्र० उ०) श्लोक १२-६७ टि० २०६-२१४ श्लोक ६२ :
२१०. क्षणभर विश्राम करे ( वीसमेज्ज खणं मुणी प ) :
मण्डली - भोजी मुनि मण्डली के अन्य साधु न आ जाएँ तब तक और एकाकी भोजन करने वाला मुनि थोड़े समय के लिए विश्राम करे ।
यहाँ मकार अलाक्षणिक है।
श्लोक १३:
श्लोक ६४ :
श्लोक १६:
२१२. खुले पात्र में ( आलोए भायणे ग) :
जिस पात्र का मुंह खुला हो या चौड़ा हो उसे आलोक-भाजन कहा जाता है। आहार करते समय जीव-जन्तु भलीभांति देखे जा सकें इस दृष्टि से मुनि को प्रकाशमय पात्र में आहार करना चाहिए ।
२१३. (अपरिसा
घ)
इसका पाठान्तर 'अपरिसाडिय' है । भगवती और प्रश्न व्याकरण में इस प्रसंग में 'अपरिसाडि' पाठ मिलता है । वहाँ इसका अर्थ होगा, जैसे न गिरे वैसे ।
श्लोक १७:
२१४. गृहस्थ के लिए बना हुआ ( अन्नड पडतं )
अगस्त्य-पूरि में इसके दो अर्थ किए हैं परकृत और अन्नार्थ भोजनाचे प्रयुक्त जिनदास पूर्ण और वृत्ति में इसका अर्थ
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१ – (क) अ० चू० पृ० १२२ : अहोसद्दो विम्हए। को विम्हओ ? सत्तसमाकुले वि लोए अपीडाए जीवाण सरीरधारणं । (ख) हा० टी० प० १७६ : 'अहो' विस्मये ।
२ (क) जि०० पृ० १०९ जाव साधुषो अन् आगच्छति जो पुण समणो असताभियो या सी गृहसमेतं वा सज्मो (वीसत्यो ) ।
(ख) हा० टी० प० १८० : मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षण' स्तोककालं मुनिरिति ।
३– (क) अ० चू० पृ० १२३ : तं पुण कंटऽट्टि मक्खिता परिहरणत्थं, 'आलोगभायणे' पगास-विउलमुहे वल्लिकाइए ।
(ख) जि० ० पृ० १८६ ते सागा आलोयभावणे समूह सियाण्य चू० :
।
(ग) हा० टी० प० १८० : 'आलोके भाजने' मक्षिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः ।
४ -- भग० ७.१.२२ : अपरिसाडि ।
५ प्रश्न० संवर द्वार १: (चौथी भावना) ।
६ - अ० चू० पृ० १२४ : अण्णापउत्तं परकडं, अहवा भोयणत्ये पयोए एतं लद्ध अतो तं ।
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