________________
आयारणि ही (आचार-णिधि)
४०३ अध्ययन ८ : श्लोक ४० टि० १०५-१०६ प्रधान अर्थ काले रंग से सम्बन्धित है किन्तु मन के बुरे या दुष्ट विचार आत्मा को अन्धकार में ले जाते हैं, इसलिए कृष्ण शब्द मानसिक संक्लेश के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
१०५. कषाय ( कसाया ग ):
यह अनेकार्थक शब्द है। कुछ एक अर्थ, जो क्रोधादि की भावना से सम्बन्धित हैं, ये हैं---गेरुआ रंग, लेप, गोंद, भावावेश' । क्रोध, मान, माया और लोभ रंग है-इनसे आत्मा रंजित होता है। ये लेप हैं—इनके द्वारा आत्मा कर्म-रज से लिप्त होता है । ये गोंद हैं -इनके चेप से कर्म-परमाणु आत्मा पर चिपकते हैं। ये भावावेश हैं - इनके द्वारा मन का सहज सन्तुलन नष्ट होता है, इसलिए इन्हें 'कषाय' कहा गया है। प्राचीन व्याख्याओं के अनुसार 'कष' का अर्थ है संसार। जो आत्मा को संसारोन्मुख बनाता है, वह 'कषाय' है। कषाय-रस से भीगे हुए वस्त्र पर मजीठ का रंग लगता है और टिकाऊ होता है, वैसे ही क्रोधादि से भीगे हुए आत्मा पर कर्म-परमाणु चिपकते हैं और टिकते हैं, इसलिए ये कषाय कहलाते हैं।
श्लोक ४० :
१०६. पूजनीयों के प्रति ( राइणिएसु + ) :
____ अगस्त्य चूणि के अनुसार आचार्य, उपाध्याय आदि सर्व साधु, जो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हों, रानिक कहलाते हैं। जिनदास महत्तर ने रात्निक का अर्थ पूर्व-दीक्षित अथवा सद्भाव (पदार्थ) के उपदेशक किया है। टीकाकार के अनुसार चिर-दीक्षित अथवा जो ज्ञान आदि भाव-रत्नों से अधिक समृद्ध हों वे रात्निक कहलाते हैं।
__ रत्न दो प्रकार के होते हैं -द्रव्य-रत्न और भाव-रत्न। पार्थिव-रत्न द्रव्य-रत्न हैं। कारण कि ये परमार्थ-दृष्टि से अकिंचित्कर है। परमार्थ-दृष्टि से भाव-रत्न हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र। ये जिनके पास अधिक उन्नत हों उन्हें टीकाकार रत्नाधिक कहते हैं । अभयदेवसूरि ने 'रायणिय' का संस्कृत रूप 'रात्निक' दिया है। इसका सम्बन्ध रत्नी से है। रत्नी जयेष्ठ, सम्मानित या उच्चाधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। शतपथ ब्राह्मण (५.५.१.१) में ब्राह्मण अर्थात् पुरोहित, राजन्य, सेनानी, कोषाध्यक्ष, भागदुषु (राजग्राह्य कर संचित करने वाला) आदि के लिए 'रत्नी' का प्रयोग हुआ है। इसलिए रात्निक का प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ पूजनीय या विनयास्पद व्यक्ति होना चाहिए।
स्थानाङ्ग में साधु-साध्वी, श्रावक और धाविका इन सभी के लिए 'राइणिते' और 'ओय रातिणिते तथा मूलाचार में साधुओं के लिए 'रादिणिय' और 'ऊणरादिणिब' शब्द प्रयुक्त हुए हैं । सूत्रकृताङ्ग में 'रातिणिय' और 'समन्वय' शब्द मिलते हैं। ये दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से साधुओं को तीन श्रेणियों में विभक्त करते हैं :
१-७० हि० पृ० २६६ । २--अ० चू० पृ० १६५ : रातिणिया पुवदिक्खिता आयरियोवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणतो पढमपव्वतियेसु । ३-जि. चू० पृ० २८६ : रायाणिआ पुन्वदिक्खिया सब्भावोवदेसगा वा। ४-हा० टी० प० २३५ : 'रत्नाधिकेषु' चिरदीक्षितादिषु । ५-हा० टी० ५० २५२-२५३ : 'रत्नाधिकेषु' ज्ञानादिभावरत्नाभ्युन्छि,तेषु । ६-ठा० ५.४८ वृ० : रत्नानि द्विधा -द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः कर्केतनादीनि भावतो ज्ञानादीनि तत्र रत्न:-ज्ञानादिभि
wवहरतीति रात्निकः-बृहत्पर्यायः । ७-ठा० ४.४२६-४२६ ० : रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि व्यवहरतीति रात्निक पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः । ८-मूला० अधि० ५. गा० १८७ पृ० ३०३ : रादिणिए ऊणरादिणिएसु अ, अज्जासु चेव गिहिवरगे।
विणओ जहारिओ सो, कायव्वो अप्पमत्तेण ॥ ६–सू० १.१४.७ ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org