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दसवेआलियं (दशवकालिक)
४०२ अध्ययन ८: श्लोक ३८-३९ टि० १००-१०४ भी यह सर्वनाश करने वाला है।
श्लोक ३८ : १००. श्लोक ३८:
इस श्लोक में क्रोधादि चार कषायों के विजय का उपदेश है : अनुदित क्रोध का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण-यह क्रोध-विजय है। अनुदित मान का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण—यह मान-विजय है । अनुदित माया का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण यह माया-विजय है ।
अनुदित लोभ का निरोध और उदय-प्राप्त का विफलीकरण---यह लोभ-विजय है । १०१. उपशम से ( उवसमेण क):
उपशम का अर्थ है क्षमा, शान्ति । १०२. ( उवसमेण हणे कोहं क ):
तुलना कीजिए-- अकोधेन जिने कोध...... अर्थात् अक्रोध से क्रोध को जीतो । [धम्मपद -क्रोधवर्ग, श्लोक ३]
१०३. मृदुता से ( मद्दवया ख ) : मृदुता का अर्थ है -उच्छ्रितता-उद्धतभाव न होना, न अकड़ना ।
श्लोक ३६ : १०४. संक्लिष्ट ( कसिणा ग ) :
टीकाकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं--कृत्स्न और कृष्ण । कृत्स्न अर्थात् सम्पूर्ण', कृष्ण अर्थात् संक्लिष्ट । कृष्ण का
१-(क) जि० चू० पृ० २८६ : लोभो पुण सव्वाणि एयाणि पोतिविणयमित्ताणि नासेइत्ति, तं०--मिउणोविय तायस्स पत्तो
लोभेण रूसेइ, भागे य अदिज्जमाणेण पडिग्णमारुभेज्जा, जहा अवस्सं मए भागं दवावेमि, मायाए तमत्थं गिहिऊण
अवलवेज्जा, अओ लोभो सम्वविणासणो, अहवा इमं लोगं परं वा लोग दोऽवि लोभेण जासयइति सम्वविणासणो य । (ख) हा० टी०प० २३४ : लोभः सर्वविनाशनः, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावभावित्वादिति । २-जि० चू० पृ० २८६ : कोहस्स उदयनिरोधो कायव्वो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरणं । ३- जि० चू०प० २८६ : माणोदयनिरोधो कायवो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरणं । ४-हा० टी० ५० २३४ : मायां च ऋजुभावेन–अशठतया जयेत् उदयनिरोधादिनव । ५.जि० चू० पृ० २८६ : लोभोदयनिरोहो कायव्वो, उदयपत्तस्य विफलीकरणं । ६-(क) अ० चू० पृ० १६४ : खमा उवसमो तेण।
(ख) जि० चू० पृ० २८६ : उवसमो खमा भण्णइ, तोए।
(ग) हा० टी०प० २३४ : 'उपशमेन' शान्तिरूपेण । ७-हा० टी०प० २३४ : मार्दवेन–अनुच्छिततया । ८-हा० टी०प० २३४ : 'कृत्स्नाः ' सम्पूर्णाः 'कृष्णा वा' क्लिष्टाः। &-अ० चू० पृ० १६४ : कसिणा पडिपुण्णा। १०-जि० चू० पृ० २८६ : अहवा संकिलिट्टा कसिणा भवन्ति ।
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