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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि)
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अध्ययन ८ : श्लोक ३४-३७ टिं० ६३-६६
९३. न छिपाए और न अस्वीकार करे ( नेव गृहे न निण्हवे ख):
पूरी बात न कहना, थोड़ा कहना और थोड़ा छिपा लेना---यह 'गूहन' का अर्थ है'। 'निन्हव' का अर्थ है--सर्वथा अस्वीकार, इन्कार। ६४. पवित्र ( सुई ग ) :
शुचि अर्थात् आलोचना के दोषों को वर्जने वाला अथवा अकलुषित मति । शुचि वह होता है जो सदा स्पष्ट रहता है। ६५. स्पष्ट ( वियडभावे ग ) : जिसका भाव-मन प्रकट होता है-स्पष्ट होता है, वह 'विकटभाव' कहलाता है।
श्लोक ३४ः ६६. सिद्धि मार्ग का ( सिद्धिमग्गं ख ) :
सिद्धि-मार्ग–सम्यग-ज्ञान, सम्यग-दर्शन और सम्यग्-चारित्रात्मक मोक्ष-मार्ग ।
विशेष जानकारी के लिए देखिए उत्तराध्ययन (अ० २८) । ९७. (भोगेसु"): यहाँ पंचमी के स्थान पर सप्तमी विभक्ति है।
श्लोक ३७ः १८. श्लोक ३७ :
क्रोधादि को वश में न करने पर केवल पारलौकिक हानि ही नहीं होती किन्तु इहलौकिक हानि भी होती है। इस श्लोक में यही बतलाया गया है। ६. लोभ सब "का विनाश करने वाला है ( लोहो सबविणासिणो घ) :
लोभ से प्रीति आदि सब गुणों का नाश होता है। जिनदास चूणि में इसे सोदाहरण स्पष्ट किया है। लोभवश पुत्र मृदु-स्वभाव वाले पिता से भी रुष्ट हो जाता है ---यह प्रीति का नाश है। धन का भाग नहीं मिलता है तब वह उद्धत हो प्रतिज्ञा करता है कि धन का भाग अवश्य लंगा—यह विनय का नाश है। वह कपटपूर्वक धन लेता है और पूछने पर स्वीकार नहीं करता, इस प्रकार मित्र-भाव नष्ट हो जाता है । यह लोभ की सर्वगुण नाशक वृत्ति है। लोभ से वर्तमान और आगामी–दोनों जीवन नष्ट होते हैं। इस दष्टि से
१-(क) अ० चू० पृ० १६३ : गृहणं पडिच्छायणं ।
(ख) जि० चू० पृ० २८५ : गृहणं किंचि कहणं भष्णइ ।
(ग) हा० टी०प० २३३ : गृहनं किंचित्कथनम् । २-(क) जि. चू०पृ० २८५ : णिण्हवो णाम पुच्छिओ संतो सवहा अवलवइ ।
(ख) हा० टी०प० २३३ : निह्नव एकान्तापलापः । ३- अ० चू० पृ० १९३ : सुती ण आकंपतित्ता अणुमाणतिता। ४-हा० टी०प० २३३ : 'शुचिः' अकलुषितमतिः । ५-जि० चू० पृ० २८५ : सो चेव सुई जो सदा वियडभावो। ६-हा० टी० प० २३३ : 'विकटभाव:' प्रकटभावः । ७-(क) जि. चू० पृ० २८५ : सिद्धिमग्गं च णाणदंसणचरित्तमइयं ।
(ख) हा० टी०प० २३३ : 'सिद्धिमार्ग' सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रलक्षणम् । ८-हा० टी०प० २३३ : भोगेभ्यो बन्धकहेतुभ्यः । है-जि० पू० पृ० २८६ : तेसिं कोहादीणमणिग्गहियाणं (च) इहलोइओ इमो दोसो भवइ ।
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