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आयारपणिही ( आचार - प्रणिधि )
अध्ययन आलोचना करने पर अपराधी भी पवित्र हो जाता है अथवा पवित्र वही है जो स्पष्ट (दोष से निर्लिप्त ) होता है'। आलोचना करने के पश्चात् आलोचक को असंसक्त और जितेन्द्रिय (फिर दोषपूर्ण कार्य न करने वाला) होना चाहिए।
आलोचना करने योग्य साधु के दश गुण बतलाए हैं। उनमें आठवां गुण दान्त है । दान्त अर्थात् जितेन्द्रिय । जो जितेन्द्रिय और होता है वही आलोचना का अधिकारी है।
आलोचना के पश्चात् शिष्य का यह कर्तव्य होता है कि गुरु जो प्रायश्चित्त दे, उसे स्वीकार करे और तदनुकूल प्रवृत्ति करे, उसका निर्वाह करें।
अनाचार सेवन, उसकी आलोचना-विधि और प्रायश्चित्त का निर्वाह – ये तीनों तथ्य क्रमश: ३१,३२,३३ इन तीन श्लोकों में प्रतिपादित हुए हैं।
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८६. (से) :
अगस्त्य चूर्णि के अनुसार 'से' का अर्थ वाक्य का उपन्यास हैं । जिनदास घुरिंग और टीका के अनुसार 'से' शब्द साधु का निर्देश करने वाला है ।
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१२. अनाचार ( अणावारं * ) :
६०. जान या अजान में ( जाणमजाणं वा
):
अधर्म का आचरण केवल अजान में ही नहीं होता, किन्तु यदा-कदा ज्ञानपूर्वक भी होता है । इसका कारण मोह है। मोह का उदय होने पर राग और द्वेष से ग्रस्त मुनि जानता हुआ भी मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगा लेता है और कभी कल्प्य और अकल्प्य को न जानकर अकल्प्य का आचरण कर लेता है ।
१. दूसरी बार ( बीयं घ ) :
प्राकृत में कहीं-कहीं एक पद में भी सन्धि हो जाती है। इसके अनुसार 'बिइओ' का 'बीओ' बना है"।
श्लोक ३२ :
अनाचार अर्थात् अकरणीय वस्तु उन्मानं" सायप्रस"।
१ - जि०
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० चू० पृ० २८५ : अहवा सो चेव सुई जो सदा वियडभावो ।
८ :
इलोक ३२ टि०८-२
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२- ० ० ० १६३ असतो दोहित्यिकज्जेहिं वा जितसोतादिदिओ ण पुण तहाकारी ।
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६ (क) जि० ० ० २०४ सेति साधुनिसे
: ।
३- भग० २५.७.६६; ठा० ८.१६ ।
४- अ० चू० पृ० १६३ : एवं संदरिसित सब्बसम्भावो अणायारविसोधणत्थं जं आणवेंति गुरवो तं । ५- अ० चू० पृ० १६३ से इति वयणोवन्नासो ।
८ है० ८.१.५ ।
६- अ० चू० पृ० १९३ : अणायारं अकरणीयं वत्थं ।
१०जि० ० ० २८५ ११ हा० डी० १० २३३
(ख) हा० टी० प० २३३ : 'स' साधुः ।
७ (क) जि० चू० पृ० २८४-८५ : तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागद्दोसवसएण मूलगुणउत्तरगुणाण अण्णतरं आधम्मियं पयं डिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पिय बुद्धीए पडिसेवियं होज्जा ।
(ख) हा० टी० प० २३३ 'जानन्नजानन् वा' आभोगतोऽना भोगतश्चेत्यर्थः ।
जणावारो उम्मग्गोतियुत्तं भव । 'मनाचा' सावद्ययोगम् ।
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