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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन १० : श्लोक १८-२१
१८-न परं वएज्जासि अयं कुसीले न परं वदेदयं कुशील:,
जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। येनान्यः कुप्येन्न तद् वदेत् । जाणिय पत्त यं पुण्णपावं ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं, अत्ताणं न समुक्कसेजेस भिक्खू॥ आत्मानं न समुत्कर्षयेद्यः स भिक्षुः ॥१८॥
१८-प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्पृथक् होते हैं६६—ऐसा जानकर जो दूसरे को६० 'यह कुशील (दुराचारी)६८ है" ऐसा नहीं कहता, जिससे दूसरा कुपित हो ऐसी बात नहीं कहता, जो अपनी विशेषता पर उत्कर्ष नहीं लाता-वह भिक्षु है ।
१९- न जाइमत्त न य रूवमत्त न जातिमत्तो न च रूपमत्तः,
न लाभमत्त न सुएणमत्त। न लाभमतो न श्रुतेन मत्तः । मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता मदान् सर्वान् विवयं, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ धर्मध्यानरतो यः स भिक्षुः ॥१६॥
१९-जो जाति का मद नहीं करता, जो रूप का मद नहीं करता, जो लाभ का मद नहीं करता, जो श्रुत का मद नहीं करता, जो सब मदों को६६ वर्जता हुआ धर्म-ध्यान में रत रहता है-वह भिक्षु है।
२०--पवेयए अज्जपयं महामुणी प्रवेदयेदार्यपदं महामुनिः,
धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि । निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीलिंग निष्क्रम्य वर्जयेत् कुशीललिङ्ग, न यावि हस्सकहए जे स भिक्खू॥ न चापि हास्यकुहको यः स भिक्षुः ॥२०॥
२०-- जो महामुनि आर्यपद (धर्मपद) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थित करता है, जो प्रवजित हो कुशील-लिङ्ग का१ वर्जन करता है, जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतूहल पूर्ण चेष्टा नहीं करता---७२ वह भिक्षु है।
२१-तं देहवासं असुइं असासयं त देहवासमशुचिमशाश्वतं,
सया चए निच्च हियद्रियप्पा। सदा त्यजेन्नित्यहितः स्थितात्मा । छिदित्त जाईमरणस्स बंधणं छित्वा जातिमरणस्य बन्धनम्, उवेइ भिक्खू अपुणरागमं गई॥ उपैति भिक्षुरपुनरागमा गतिम् ॥२१॥
२१ -अपनी आत्मा को सदा शाश्वतहित में सुस्थित रखने वाला भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को 3 सदा के लिए त्याग देता है और वह जन्म-मरण के बन्धन को छेदकर अपुनरागम-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।
ऐसा मैं कहता हूँ।
त्ति बेमि॥
इति ब्रवीमि ।
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