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________________ अध्ययन १०: श्लोक १२-१७ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८१ १२–पडिम पडिवज्जिया मसाणे प्रतिमा प्रतिपद्य श्मशाने, नो भायए भयभेरवाइंदिस्स। नो बिभेति भयभेरवानि दृष्ट्वा । विविहगुणतवोरए य निच्चं विविधगुणतपोरतश्च नित्यं, न सरीरं चाभिकंखई जेसभिक्खू ॥ न शरीर चाभिकांक्षति ___ यः स भिक्षुः ॥१२॥ १२–जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहण कर४३ अत्यन्त भयजनक दृश्यों को देखकर नहीं डरता, जो विविध गुणों और तपों में रत होता है, जो शरीर की आकांक्षा नहीं करता५--वह भिक्षु है। १३–असइं वोसट्टचत्तदेहे अक्कुट्ठ व हए व लूसिए वा। पुढवि समे मुणी हवेज्जा अनियाणे अकोउहल्ले य जेस भिक्खू॥ असकृद् व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, आक्रुष्टो वा हतो वा लूषितो वा । पृथ्वीसमो मुनिर्भवेत्, अनिदानोऽकौतूहलो यः स भिक्षुः॥१३॥ १३- जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और त्याग करता है, जो आक्रोश देने, पीटने और काटने पर पृथ्वी के समान सर्वसह" होता है, जो निदान नहीं करता, जो कुतूहल नहीं करता-बह भिक्षु है। १४–अभिभूय काएण परीसहाइ अभिभूय कायेन परिषहान्, समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं। समुद्धरेज्जातिपथादात्मकम् । विइत्त जाइमरणं महब्भयं विदित्वा जातिमरणं महाभयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू॥ तपसि रतः श्रामण्ये यः स भिक्षुः ॥१४॥ १४-जो शरीर से परीषहों को५० जीतकर जाति-पथ (संसार)” से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभय जानकर श्रमण-सम्बन्धी तप में रत रहता है-वह भिक्षु है। १५-हत्थसंजए पायसंजए हस्तसंयतः पादसंयतः, वायसंजए संजइंदिए। वाक्संयत: संयतेन्द्रियः । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा अध्यात्मरतः सुसमाहितात्मा, सुत्तत्थं च वियाणईजेस भिक्खू। सूत्रार्थ च विजानाति यः स भिक्ष: ॥१५॥ १५-जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत५३ है, वाणी से संयत५४ है, इन्द्रियों से संयत५५ है, अध्यात्म ६ में रत है, भलीभाँति समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है-वह भिक्षु है । १६-उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्ध उपधौ अमूच्छितोऽगृद्धः, अन्नायउंछपुल निप्पुलाए। अज्ञातोञ्छपुलो निष्पलाकः । कयविक्कयसन्निहिओ विरए क्रयविक्रयसन्निधितो विरतः, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ सर्वसङ्गापगतो यः स भिक्षुः ॥१६॥ १६--जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, जो अगृद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करने वाला है, जो संयम को असार करने वाले दोषों से रहित है५८, जो क्रय-विक्रय और सन्निधि से५६ विरत है, जो सब प्रकार के संगों से रहित है (निर्लेप है)-वह भिक्षु है। १७-अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्ध अलोलो भिक्षुर्न रसेषु गद्धः, उंछ चरे जीविय नामिकखे। उञ्छं चरेज्जीवितं नाभिकांक्षेत् । इडि च सक्कारण पूयणं च ऋद्धि च सत्कारणं पूजनञ्च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्ख ॥ त्यजति स्थितात्मा अनिभो य: स भिक्षुः ॥१७॥ १७---जो अलोलुप है६२, रसों में गृद्ध नहीं है, जो उञ्छचारी है (अज्ञात कुलों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेता है), जो असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा की स्पृहा को त्यागता है, जो स्थितात्मा५ है, जो अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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