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दशवेआलियं (दशवैकालिक)
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अध्ययन १० : श्लोक ६-११
६-चत्तारि वमे सया कसाए
धुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जायरूवरयए गिहिजोगं परिवज्जए जे सभिक्खू ॥
चतुरो वमेत् सदा कषायान्, ध्रुवयोगी च भवेद् बुद्धवचने। अधनो निर्जातरूपरजतः, गृहियोगं परिवर्जयेद् यः सः भिक्षुः ॥६॥
६-जो चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का परित्याग करता है, जो निर्गन्थ-प्रवचन में ध्र वयोगी है जो अधन है, जो स्वर्ण और चाँदी से रहित है, जो गृही योग२४ (क्रय-विक्रय आदि) का वर्जन करता है - वह भिक्षु है।
७-सम्मट्टिी सया अमूढे सम्यग्दृष्टिः सदाऽमूढः.
७-जो सम्यक् दर्शी२५ है, जो सदा अस्थि ह नाणे तवे संजमे य। अस्ति खलु ज्ञानं तपः संयमश्च ।
अमूढ़ है२६, जो ज्ञान, तप और संयम के
अस्तित्व में आस्थावान् है, जो तप के द्वारा तवसा धुणइ पुराणपावगं तपसा धुनोति पुराणपापक,
पुराने पापों को प्रकम्पित कर देता है, जो मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्ख ॥ सुसंवृतमनोवाक्-कायः
मन, वचन तथा काय से सुसंवृत८है-वह यः स भिक्षुः ॥७॥ भिक्षु है।
८-तहेव असणं पाणगं वा तथैवाशनं पानक वा,
विविहं खाइमसाइमं लभिता। विविधं खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा। होही अट्ठो सुए परे वा
भविष्यत्यर्थः श्वः परस्मिन्वा,
तं न निदध्यान्न निधापयेद् तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ।
यः स भिक्षु ॥८॥
८-पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर-यह कल या परसों काम आएगा-इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है-वह भिक्षु है ।
8-तहेव असणं पाणगं या तथैवाशनं पानकं वा,
विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। विविध खाद्यं स्वाद्यं लब्ध्वा । छंदिय साहम्मियाण भुजे
छन्दयित्वा सार्मिकान् भुञ्जीत, भोच्चा सज्झायरए य जे स भिक्खू॥ पवार
भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च
यः स भिक्षुः ॥६॥
१-पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर जो सार्मिकों को निमंत्रित कर ३२ भोजन करता है, जो भोजन कर चुकने पर स्वाध्याय में रत रहता है-वह भिक्षु है।
१०-न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा
न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खु ॥
न च वैग्रहिकी कथां कथयेत्, न च कुप्येन्निभृतेन्द्रियः प्रशान्तः । संयम-ध्रु वयोगयुक्तः उपशान्तोऽविहेठको यः स भिक्षुः॥१०॥
१०--जो कलहकारी कथा33 नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्र वयोगी है३६, जो उपशान्त है", जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता८-बह भिक्षु है।
११-जो सहइ हु गामकंटए ।
अक्कोसपहारतज्जणाओ य। भयभेरवसहसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु ॥
यः सहते खलु ग्रामकण्टकान्, आक्रोशप्रहारतर्जनाश्च । भयभैरवशब्दसंप्रहासान्, समसुखदुःखसहश्च यः स भिक्षुः ॥११॥
११-जो कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को४१ सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है-वह भिक्षु है।
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