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आयारपणिही ( आचार - प्रणिधि)
१६६. ( जाए क
१६५. उपशान्त कर ( सीईभूएण
)
शीत का अर्थ है उपशान्त' । क्रोध आदि कषाय को उपशान्त करने वाला 'शीतीभूत' कहलाता हैं ।
श्लोक ६०
घ
):
जिस अर्थात् प्रब्रजित होने के समय होने वाली (श्रद्धा) से ।
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श्लोक ५६ :
अध्ययन : इलोक ५९-६१ टि० १६५-१७०
१६७. श्रद्धा से ( सद्धाए क ) :
धर्म में आदर, मन का परिणाम और प्रधान गुण का स्वीकार श्रद्धा के ये विभिन्न अर्थ किए गए हैं। इन सबको मिलाकर निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है— जीवन विकास के प्रति जो आस्था होती है, तीव्र मनोभाव होता है वही 'श्रद्धा' है ।
)
१६८. उस श्रद्धा को ( तमेव
अगस्त्य चूर्णि और टीका के अनुसार यह श्रद्धा का सर्वनाम है और जिनदास घूणि के अनुसार पर्याय स्थान का" । आचाराङ्ग वृत्ति में इसे श्रद्धा का सर्वनाम माना है ।
१६. आचार्य सम्मत ( आयरियसम्मए प ) :
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आचार्य-सम्म अर्थात् तीर्थकर गणधर आदि द्वारा अनुमत" यह गुण का विशेषण है टीका में उल्लिखित मतान्तर के अनुसार यह श्रद्धा का विशेषण है | श्रद्धा का विशेषण मानने पर दो चरणों का अनुवाद इस प्रकार होगा - आचार्य सम्मत उसी श्रद्धा का अनुपालन करे" ।
श्लोक ६१:
१७०. ( सूरे व सेणाए ) :
जिस प्रकार शस्त्रों से सुसज्जित वीर चतुरङ्ग (घोड़ा, हाथी, रथ और पदाति) सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का संरक्षण
अ० पू० पृ० २०० सीतभूतेन सीतो उसंतो, जया निष्णो देवो, अतो सोतभूतेण उवसंतेन । २- हा० डी० प० २३८ 'शीतीभूतेन' फोपाययुपमात्प्रशान्तेन । ३ - अ० चू० पृ० २०० : जाएत्ति निक्खमणसमकालं भण्णति ।
४ - अ० चू० पृ० २०० : सद्धा धम्मे आयरो ।
५- जि० चू० पृ० २९३ : सद्धा परिणामो भण्णइ ।
६ हा० टी० प० २३८ 'श्रद्धा' प्रधानगुणस्वीकरणरूपया ।
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सद्ध ं पव्वज्जासमकालिण अणुपालेज्जा ।
७ - ( क ) अ० चू० : तं
(ख) हा० टी० प० २३८ : तामेव श्रद्धामप्रतिपत्तितया प्रवर्द्धमानाम् ।
८. जि० ० ० २९३ तमेव परिवाणं ।
-आ० ११३५ : ' जाए सद्धाए निक्खतो तमेव अणुपालिज्जा, वृ० यया श्रद्धया प्रवर्धमानसयमस्थानकण्डकरूपया 'निष्क्रान्तः ' गृहीतवान् तामेव श्रद्धानन्तरजीवम् 'अनुपालयेत्'– रक्षेत् ।
१० नि० ० ० २२३
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आवरिया नाम तित्मकरगणधराई तेसि संगए नाम संमजोति वा अनुमति बा
एगट्ठा ।
११ हा० टी० १० २३८ जन्ये तु द्वाविशेषणमेतदिति व्याचलते तामेव बडामनुपालये गुणेषु भूताम् ? आचार्यसंमतां न तु स्वाग्रहकलङ्कितामिति ।
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