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________________ दसवेआलयं ( दशवकालक) ४२० अध्ययन ८:श्लोक ६२ टि०१७१-१७६ करने में समर्थ होता है उसी प्रकार जो मुनि तप, संयम आदि गुणों से सम्पन्न होता है, वह इन्द्रिय और कषाय रूप सेना से घिर जाने पर अपना और दूसरों का बचाव करने में समर्थ होता है'। १७१. ( अलं परेसिप): 'अलं' का एक अर्थ विधारण- रोकना भी है। इसके अनुसार अनुवाद होगा कि आयुधों से सुसज्जित वीर अपनी रक्षा करने में समर्थ और पर अर्थात् शत्र ओं को रोकने वाला होता है। १७२. संयम-योग ( संजमजोगयं क ): जीवकाय-संयम, इन्द्रिय-संयम, मन:-संयम आदि के समाचरण को संयम-योग कहा जाता है । इससे सतरह प्रकार के संयम का ग्रहण किया है। १७३. स्वाध्याय-योग में ( सज्झायजोगं ख ): _____ स्वाध्याय तप का एक प्रकार है । तप का ग्रहण करने से इसका ग्रहण सहज ही हो जाता है किन्तु इसकी मुख्यता बताने के लिए यहाँ पृथक् उल्लेख किया है । स्वाध्याय बारह प्रकार के तपों में सब से मुख्य तप है। इस अभिमत की पुष्टि के लिए अगस्त्यसिंह ने एक गाथा उद्धृत की है : बारसविहम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिट्ठ। न वि अस्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ (कल्पभाष्य गा० ११६६) १७४. प्रवृत्त रहता है ( अहिट्ठए ख ) : ___टीका में 'अहिट्ठए' का संस्कृत रूप 'अधिष्ठाता' है। किन्तु 'तवं' आदि कर्म हैं, इसलिए यह 'अहिट्ठा' धातु का रूप होना चाहिए। १७५. आयुधों से सुसज्जित ( समत्तमाउहे ग ) : यहाँ मकार अलाक्षणिक है । जिसके पास पाँच प्रकार के आयुध होते हैं, उसे 'समाप्तायुध' (आयुधों से परिपूर्ण) कहा जाता है। श्लोक ६२ १७६. ( सि "): 'सि' शब्द के द्वारा साधु का निर्देश किया गया है। १--जि० चू० पृ० २६३ : जहा कोई पुरिसो चउरंगबलसमन्नागताए सेणाए अभिरुद्धो संपन्नाउहो असं (सूरो अ) सो अप्पाणं परं च ताओ संगामाओ नित्थारेउंति, अलं नाम समत्थो, तहा सो एवंगुणजुत्तो अलं अप्पाणं परं च इंदियकसायसेणाए अभिरुद्धं नित्थारेउंति । २–अ० चू०प० २०० : अहवा अलं परेसि, परसद्दो एत्थ सत्तू सु वट्टति, अलं सद्दो विधारणे । सो अलं परेसिं धारणसमत्थो सत्तूण। ३–(क) अ० चू० पृ० २०० : सत्तरसविधं संजमजोगं । (ख) हा० टी०प० २३८ : 'संयमयोग' पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं । ४.- (क) जि० चू० पृ० २६३ : णणु तवगहणेण सज्झाओ गहिओ ?, आयरिओ आह-सच्चमेयं, किंतु तबभेवोपरिसणत्थं सज्झायगहणं कयं । (ख) हा० टी०प० २३८ : इह च तपोऽभिधानात्तद्ग्रहणेऽगि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाभिधानम् । ५-हा० टी०प० २३८ : 'अधिष्ठाता' तपः प्रभृतीनां कर्ता । ६-अ० चू० पृ० २०१ : पंचवि आउधाणि सुविहिताणि जस्स सो समत्तमायुधा। ७-जि० चू० पृ० २६४ : सित्ति साहुणो निद्देसो । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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