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________________ आवारपणही ( आचार - प्रणिधि ) क १७७. सद्ध्यान में ( सज्ज्ञान ): ध्यान के चार प्रकार हैं-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । इनमें धर्म्य और शुक्ल ये दो सद्ध्यान हैं' । १७८. मल ( मलंग ) : 'मल' का अर्थ हूँ पाप' । अगस्त्य भ्रूण में 'मलं' के स्थान में 'रयं' पाठ है। अर्थ की दृष्टि से दोनों समानार्थक हैं । 3 इलोक ६३ : ४२१ १७६. ( विरायई कम्मघणम्मि अवगए अगस्त्य चूर्णि में इसके स्थान में 'विसुज्झती पुव्वकडेण कम्मुणा' और जिनदास भ्रूण में 'विमुच्चइ पुण्वकडेण कम्मुणा' पाठ है । इनका अनुवाद क्रमश: इस प्रकार होगा- पूर्वकृत कर्मों से विशुद्ध होता है, पूर्वकृत कर्मों से विमुक्त होता है । १८०. ( चंदिमा ध ) : व्याख्याओं में इसका अर्थ चन्द्रमा है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से चन्द्रिका होता है । १८२. ममत्व-रहित ( अममे ) : १८१. दुःखों को सहन करने वाला ( दुक्खसहे क ) दुःखसह का अर्थ है शारीरिक और मानसिक दुःखों को सहन करने वाला या परीषहों को जीतने वाला । जिसके ममकार - मेरापन नहीं होता, वह 'अमम' कहलाता है" । अध्ययन श्लोक ६३ टि० १७७-१८४ ८ : १८३. अकिञ्चन ( अकिंचणे ख ) : जो हिरण्य आदि द्रव्य किचन और मिथ्यात्व आदि भाव-किचन से रहित होता है, वह 'अकिञ्चन' कहलाता है। १८४. अभ्रपटल से वियुक्त ( अम्भपुडायगमे ) : अभ्रपुट का अर्थ —‘बादल के परत' है । भावार्थ की दृष्टि से हिम, रज, तुषार, कुहासा – ये सब अभ्रपुट हैं। अभ्रपुट का अपग अर्थात् बादल आदि का दूर होना" शरद ऋतु में आकाश बादलों से वियुक्त होता है, इसलिए उस समय का चांद अधिक निर्मल होता है। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है - शरद ऋतु के चन्द्रमा की तरह शोभित होता है" । १ (क) उत्त० २०.३५ अहरुदाणि बज्जिता भाज्या मुसमाहिए। धम्मसुक्का झाणाई (ख) अ० चू० पृ० २०१ : सज्झाणे धम्मसुक्के । २ -- जि० ० चू० पृ० २६४ : मलंति वा पावंति वा एगट्ठा । ३- अ० ० पृ० २०१ : विसुज्झती जं से रयं पुरेकडं ४- अ० चू० पृ० २०१; जि० चू० पृ० २६४ : चंदिमा चन्द्रमाः । ५ - हैम० ८.१.१८५ चन्द्रिकायां मः । ६-० ० ० २०१ Jain Education International 'दुःसहः' परीषहजेता । וי दुष्यं सारीरमानसं राहतीत दुसहो। रयो मलो पावमुच्यते । ७- हा० टी० प० २३८ ८ - अ० चू० पृ० २०१ : णिम्ममते अममे । १ वि० ० ० २६४ दव्यकवणं हिरणादि भाषकच मिच्छत्तअविरतोमादि तं दचिणं नाव व जस्त गरिब सो अणि। १०-२० ० पृ० २०१ ११- अ० चू० पृ० २०१ अमरस बलाहादि अन्यडस अवगमोहिमरजोतुसारमिमायण व अवगम जधा सरदि विगतघणे णभसि संपुष्णमंडलो ससि सोभते तथा सो भगवं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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