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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ५०६ प्रथम चूलिका : स्थान ११-१८ श्लोक १-२ ११-सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए॥ गृहवासः । (११) सोपक्लेशो निरुपक्लेशः पर्यायः । (११) गृहवास क्लेश सहित है१२ और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित । गहवासः । मोक्ष: १२-बंधे गिहवासे । मोक्खे परियाए॥ (१२) बन्धो पर्यायः। (१२) गृहवास बन्धन है और मुनिपर्याय मोक्ष। १३-सावज्जे गिहवासे। अणवज्जे परियाए॥ (१३) सावद्यो गृहवासः । अनवद्यः पर्यायः। (१३) गृहवास सावध है और मुनिपर्याय अनवद्य। १४-बहसाहारणा गिहोणं कामभोगा॥ (१४) बहुसाधारणा गृहिणां काम भोगाः । (१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुजन सामान्य हैं-सर्व सुलभ हैं। १५-पत्त यं पुण्णपावं ॥ (१५) प्रत्येकं पुण्यपापम् । (१५) पुण्य और पाप अपना-अपना होता है। १६-अणिच्चे खलु भो ! मणुयाण (१६) अनित्यं खलु भो ! मनुजानां (१६) ओह ! मनुष्यों का जीवन जीविए कुसग्गजलबिदुचंचले ॥ जीवितं कुशाग्रजलविन्दुचञ्चलम्,' अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जल बिन्दु के समान चंचल है। १७-बहुच खलु पावं कम्मं पगडं ॥ (१७) बहु च खलु भो पाप- (१७) ओह ! मैंने इससे पूर्व बहुत ही ___ कर्म प्रकृतम् । पाप-कर्म किए हैं। १८-पावाणं च खल भो ! कडाणं (१८) पापानां च खलु भो ! कृतानां (१८) ओह ! दुश्चरित्र और दुष्टकरमाणं पूटिव दुच्चिण्णाणं दुप्प- कर्मणां पूर्व दुश्चीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अजित किए हुए पाप-कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा वा शोषयित्वा । अष्टादशं पदं भवति । के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष झोस इत्ता।अद्वारसमं पयं भवइ । होता है ---उनसे छुटकारा होता है। उन्हें सू०१ भोगे बिना (अथवा तप के द्वारा उनका क्षय किए बिना) मोक्ष नहीं होता-उनसे छुट कारा नहीं होता। यह अठारहवाँ पद है। भवइ य इत्थ सिलोगो५भवति चाऽत्र श्लोक: अब यहाँ श्लोक है। १-जया य चयई धम्मं यदा च त्यजति धर्म, अणज्जो भोगकारणा। अनार्यो भोगकारणात् । से तत्थ मुच्छिए बाले स तत्र मूच्छितो बालः, आयइं नावबुज्झइ॥ आति नावबुध्यते ॥१॥ १-अनार्य जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग में मूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता। २-जया ओहाविओ होइ यदाऽवधावितो भवति, इंदो वा पडिओ छमं। इन्द्रो वा पतितः क्षमाम् । सव्वधम्मपरिब्भट्ठो सर्वधर्मपरिभ्रष्टः, स पच्छा परितप्पइ॥ सः पश्चात्परितप्यते ॥२॥ २-जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहवास में प्रवेश करता है तब वह धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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