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दसवेआलियं (दशवकालिक)
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प्रथम चूलिका : स्थान ११-१८ श्लोक १-२
११-सोवक्केसे गिहवासे।
निरुवक्केसे परियाए॥
गृहवासः ।
(११) सोपक्लेशो निरुपक्लेशः पर्यायः ।
(११) गृहवास क्लेश सहित है१२ और मुनि-पर्याय क्लेश-रहित ।
गहवासः । मोक्ष:
१२-बंधे गिहवासे ।
मोक्खे परियाए॥
(१२) बन्धो पर्यायः।
(१२) गृहवास बन्धन है और मुनिपर्याय मोक्ष।
१३-सावज्जे गिहवासे।
अणवज्जे परियाए॥
(१३) सावद्यो गृहवासः । अनवद्यः पर्यायः।
(१३) गृहवास सावध है और मुनिपर्याय अनवद्य।
१४-बहसाहारणा गिहोणं कामभोगा॥ (१४) बहुसाधारणा गृहिणां काम
भोगाः ।
(१४) गृहस्थों के काम-भोग बहुजन सामान्य हैं-सर्व सुलभ हैं।
१५-पत्त यं पुण्णपावं ॥
(१५) प्रत्येकं पुण्यपापम् ।
(१५) पुण्य और पाप अपना-अपना होता है।
१६-अणिच्चे खलु भो ! मणुयाण (१६) अनित्यं खलु भो ! मनुजानां (१६) ओह ! मनुष्यों का जीवन जीविए कुसग्गजलबिदुचंचले ॥ जीवितं कुशाग्रजलविन्दुचञ्चलम्,' अनित्य है, कुश के अग्र भाग पर स्थित जल
बिन्दु के समान चंचल है। १७-बहुच खलु पावं कम्मं पगडं ॥ (१७) बहु च खलु भो पाप- (१७) ओह ! मैंने इससे पूर्व बहुत ही ___ कर्म प्रकृतम् ।
पाप-कर्म किए हैं। १८-पावाणं च खल भो ! कडाणं (१८) पापानां च खलु भो ! कृतानां (१८) ओह ! दुश्चरित्र और दुष्टकरमाणं पूटिव दुच्चिण्णाणं दुप्प- कर्मणां पूर्व दुश्चीर्णानां दुष्प्रतिक्रान्तानां पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में अजित किए
हुए पाप-कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा वा शोषयित्वा । अष्टादशं पदं भवति ।
के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष झोस इत्ता।अद्वारसमं पयं भवइ ।
होता है ---उनसे छुटकारा होता है। उन्हें सू०१
भोगे बिना (अथवा तप के द्वारा उनका क्षय किए बिना) मोक्ष नहीं होता-उनसे छुट
कारा नहीं होता। यह अठारहवाँ पद है। भवइ य इत्थ सिलोगो५भवति चाऽत्र श्लोक:
अब यहाँ श्लोक है।
१-जया य चयई धम्मं यदा च त्यजति धर्म,
अणज्जो भोगकारणा। अनार्यो भोगकारणात् । से तत्थ मुच्छिए बाले स तत्र मूच्छितो बालः, आयइं नावबुज्झइ॥ आति नावबुध्यते ॥१॥
१-अनार्य जब भोग के लिए धर्म को छोड़ता है तब वह भोग में मूच्छित अज्ञानी अपने भविष्य को नहीं समझता।
२-जया ओहाविओ होइ यदाऽवधावितो भवति,
इंदो वा पडिओ छमं। इन्द्रो वा पतितः क्षमाम् । सव्वधम्मपरिब्भट्ठो
सर्वधर्मपरिभ्रष्टः, स पच्छा परितप्पइ॥ सः पश्चात्परितप्यते ॥२॥
२-जब कोई साधु उत्प्रवजित होता है-गृहवास में प्रवेश करता है तब वह धर्मों से भ्रष्ट होकर वैसे ही परिताप करता है जैसे देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमितल पर पड़ा हुआ इन्द्र ।
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