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________________ पढमा चूलिया : प्रथम चूलिका र इवक्का : रतिवाक्या मूल संस्कृत छाया . इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्न- इह खलु भोः ! प्रव्रजितेन उत्पन्नदुःखेन दुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तणं, संयमेऽरतिसमापन्नचित्तन अवधाओहाण पहिणा अणोहाइएणं चेव, वनोत्प्रेक्षिणा अनवधावितेन चैव हयरस्सि - गयंकस - पोयपडागाभूयाई हयरश्मिगजांशकुशपोतपताकाभूतानि । इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडि. इमा न्यष्टादशस्थानानि सम्यक् संप्रतिलेहियव्वाई भवंति । तंजहा लेखितव्यानि भवन्ति । तद्यथा :-- हिन्दी अनुवाद मुमुक्षुओ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रवजित हैं किन्तु उसे मोहवश दु:ख उत्पन्न हो गया', संयम में उसका चित्त अरति-युक्त हो गया, वह संयम को छोड़ गृहस्थाश्रम में चला जाना चाहता है, उसे संयम छोड़ने से पूर्व अठारह स्थानों का भलीभांति आलोचन करना चाहिए । अस्थितात्मा के लिए इनका वही स्थान है जो अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका का है । अठारह स्थान इस प्रकार हैं: (१) ओह ! इस दुष्षमा (दुःख-बहुल पांचवें आरे) में लोग बड़ी कठिनाई में जीविका चलाते हैं। (२) गृहस्थों के काम-भोग स्वल्प-सारसहित (तुच्छ) और अल्पकालिक हैं । (३) मनुष्य प्राय: माया बहुल होते हैं । १-ह भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी। (१) हं हो ! दुष्षमायां दुष्प्रजीविनः । २ लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं (२) लघुस्वका इत्वरिका गृहिणां कामभोगा॥ कामभोगाः। ३-भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा ॥ (३) भूयश्च साचि( ति ) बहुला मनुष्याः । ४- इमे य मे दुक्खे न चिरकालो- (४) इदं च मे दुःखं न चिरकालो वटाई भविस्सइ॥ पस्थायि भविष्यति । ५-ओमजणपुरक्कारे॥ (५) अवमजनपुरस्कारः। ६-वंतस्स य पडियाइयणं । (६) वान्तस्य च प्रत्यापानम् (दानम्)। (४) यह मेरा परीषह-जनित दुःख चिरकाल स्थायी नहीं होगा। (५) गृहवासी को नीच जनों का पुरस्कार करना होता है-सत्कार करना होता है। (६) संयम को छोड़ घर में जाने का अर्थ है वमन को वापस पीना । (७) संयम को छोड़ गृहवास में जाने का अर्थ है नारकीय-जीवन का अङ्गीकार । (८) ओह ! गृहवास में रहते हुए गृहियों के लिए धर्म का स्पर्श निश्चय ही दुर्लभ है। (६) वहां आतंक वध के लिए होता ७-अहरगइवासोवसंपया। (७) अधरगतिवासोपसंपदा। ८-दुल्लभे खलु भो ! गिहीणं धम्मे (८) दुर्लभः खलु भो ! गृहिणां धर्मो गिहिवासमझे वसंताणं ॥ गृहवासमध्ये वसताम् । -आयंके से वहाय होइ॥ (९) आतङ्कस्तस्य वधाय भवति । १०--संकप्पे से वहाय होइ॥ (१०) संकल्पस्तस्य वधाय भवति । (१०) वहाँ संकल्प वध के लिए होता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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