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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
५०४ रतिवाक्या ( प्रथम चूलिका ) : आमुख जन-साधारण के लिए सुप्राप्य हैं। किन्तु संयम वैसा सुलभ नहीं है। मनुष्य का जीवन अनित्य है।" ये वाक्य वैराग्य की धारा को वेग देने के लिए हैं । इस प्रकार ये अठारह स्थान बहुत ही अर्थवान् और स्थिरीकरण के अमोघ आलम्बन हैं। इनके बाद संयम-धर्म से भ्रष्ट होने वाले मुनि की अनुतापपूर्ण मनोदशा का चित्रण मिलता है ।
भोग अतृप्ति का हेतु है या अतृप्ति ही है। तृप्ति संयम में है। भोग का आकर्षण साधक को संयम से भोग में घसीट लेता है । वह चला जाता है । जाना है एक आकांक्षा के लिए। किन्तु भोग में अतृप्ति बढ़ती है, संयम का सहज आनन्द नहीं मिलता तब पूर्व दशा से हटने का अनुपात होता है । उस स्थिति में ही सयम और भोग का यथार्थ मूल्य समझ में आता है।
"प्राकांक्षा-हीन व्यक्ति के लिए संयम देवलोक सम है और आकांक्षावान् व्यक्ति के लिए वह नरकोपम है।"
इस स्याद्वादात्मक-पद्धति से संयम की उभयरूपता दिखा संयम में रमण करने का उपदेश जो दिया है, वह सहसा मन को खींच लेता है । आकांक्षा का उन्मूलन करने के लिए अनेक पालम्बन बताए हैं। उनका उत्कर्ष "चइज्ज देहं न हु धम्मसासरणं"-शरीर को त्याग दे पर धर्म-शासन को न छोड़े-इस वाक्य में प्रस्फुटित हुआ है । समग्र-दृष्टि से यह अध्ययन अध्यात्म-ग्रारोह का अनुपम सोपान है ।
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