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प्रथम चूलिका : श्लोक ३-६
रइवक्का (रतिवाक्या) ३--जया य वंदिमो होइ
पच्छा होइ अव दिमो। देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ ॥
यदा च वन्द्यो भवति, पश्चाद् भवत्यवन्धः। देवतेव च्युता स्थानात्, स पश्चात् परितप्यते ॥३॥
३–प्रव्रजित काल में साधु वंदनीय होता है, वही जब उत्प्रव्रजित होकर अवन्दनीय हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे अपने स्थान से च्युत देवता ।
४--जया य पूइमो होइ
पच्छा होइ अयूइमो। राया व रज्जपन्भट्टो स पच्छा परितप्पइ॥
यदा च पूज्यो भवति, पश्चाद् भवत्यपूज्यः । राजेव राज्यप्रभ्रष्टः, स पश्चात्परितप्यते ॥४॥
४–प्रवजित काल में साधु पूज्य होता है, वही जब उत्प्रव्रजित होकर अपूज्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे राज्य-भ्रष्ट राजा।
५-जया य माणिमो होइ
पच्छा होइ अमाणिमो। सेट्टि व्व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पड़॥
यदा च मान्यो भवति, पश्चाद् भवत्यमान्यः। श्रेष्ठीव कर्बटे क्षिप्तः, स पश्चात्परितप्यते ॥५॥
५----प्रव्रजित काल में साधु मान्य होता है, वही जब उत्प्रवजित होकर अमान्य हो जाता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे कर्बट (छोटे से गाँव) में८ अवरुद्ध किया हुआ श्रेष्ठी।
६-- जया य थेरओ होइ
समइक्कंतजोव्वणो । मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ॥
यदा च स्थविरो भवति, समतिकान्तयौवनः । मत्स्य इव गलं गिलित्वा, स पश्चात्परितप्यते ॥६॥
६-यौवन के बीत जाने पर जब वह उत्प्रव्रजित साधु बूढ़ा होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे काट को निगलने वाला मत्स्य ।
७-जया य कुकुडंबस्स
कुतत्तीहि विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पइ॥
यदा च कुकुटुम्बस्य, कुतप्तिभिविन्यते । हस्तीव बन्धने बद्धः, स पश्चात्परितप्यते ॥७॥
७-वह उत्प्रजित साधु जब कुटुम्ब की दुश्चिन्ताओं से प्रतिहत होता है तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे बन्धन में बंधा हुआ हाथी।
पुत्रदारपरिकोणः,
८-पुत्तदारपरिकिण्णो
मोहसंताणसंतओ पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पई ॥
मोहसन्तानसन्ततः। पङ्कावसन्नो यथा नागः, स पश्चात्परितप्यते ॥८॥
८-पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से परिव्याप्त वह वैसे ही परिताप करता है जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी।
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