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देसवेआलियं (दशवकालिक)
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प्रथम चूलिका : श्लोक ६-१४
ह-अज्ज आहं गणी हुतो
भावियप्पा बहुस्सुओ। जइ हं रमतो परियाए सामण्ण
जिणदेसिए॥
अद्य तावदहं गणी अभविष्यं, भावितात्मा बहुश्रुतः। यद्यहमरंस्ये पर्याये, धामण्ये जिनदेशिते ॥६॥
६-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत२२ गणी होता यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता।
मिण्ण
१०-देवलोगसमाणो
परियाओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो ॥
देवलोकसमानस्तु, पर्यायो महर्षीणाम् । रतानामरतानां तु, महानरकसदृशः ॥१०॥
१०-संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दुःखद होता है।
११- अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं
रयाण परियाए तहारयाणं। निरओवमं जाणिय दुक्खमत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए॥
अमरोपमं ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं, रतानां पर्याये तथाऽरतानाम् । निरयोपमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं, रमेत तस्मात्पर्याय पण्डितः ॥११॥
११–संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्तम (उत्कृष्ट )जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख नरक के समान उत्तम (उत्कृष्ट) जानकर पण्डित मुनि संयम में ही रमण करे ।
१२-धम्माउ भट्ट सिरिओ ववेयं
जन्नग्गि विज्झायमिव पतेयं। हीलंति णं दुविहियं कुसीला दादुद्धियं घोरविसं व नागं ॥
धर्माभ्रष्टं श्रियो व्यपेतं, यज्ञाग्नि विध्यातमिवाल्पतेजसम् । होलयन्ति एनं दुविहितं कुशीलाः, उद्ध तदंष्ट्र घोरविषमिव नागम् ॥१२॥
१२-जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों उस घोर विषधर सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्र रूपी श्री से२४ रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि की भांति निस्तेज२५ और दुविहित साधु की२६ कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं।
१३-इहेवधम्मो अयसो अकित्ती
दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेटुओ गई।
इहव अधर्मोऽयशोऽकीति:, दुर्नामधेयं च पृथग्जने। च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः, .. संभिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद् गतिः ॥१३॥
१३.-धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र का खण्डन करने वाला साधुप इसी मनुष्य-जीवन में अधर्म का आचरण करता है, उसका अयश° और अकीर्ति होती है । साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है तथा उसकी अधोगति होती है।
१४-भुजित्त भोगाइ पसज्झ चेयसा
तहाविहं कटु असंजमं बहु।। गईच गच्छे अणभिज्झियं दुहं । बोहोय से नो सुलभा पुणो पुणो॥
भुक्त्वा भोगान् प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयम बहुम् । गति च गच्छेदनभिध्यातां दुखां, बोधिश्च तस्य नो सुलभा पुनः पुनः ॥१४॥
१४--वह संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से३१ भोगों को भोगकर और तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती।
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