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________________ देसवेआलियं (दशवकालिक) ५०८ प्रथम चूलिका : श्लोक ६-१४ ह-अज्ज आहं गणी हुतो भावियप्पा बहुस्सुओ। जइ हं रमतो परियाए सामण्ण जिणदेसिए॥ अद्य तावदहं गणी अभविष्यं, भावितात्मा बहुश्रुतः। यद्यहमरंस्ये पर्याये, धामण्ये जिनदेशिते ॥६॥ ६-आज मैं भावितात्मा और बहुश्रुत२२ गणी होता यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) में रमण करता। मिण्ण १०-देवलोगसमाणो परियाओ महेसिणं। रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो ॥ देवलोकसमानस्तु, पर्यायो महर्षीणाम् । रतानामरतानां तु, महानरकसदृशः ॥१०॥ १०-संयम में रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और जो संयम में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दुःखद होता है। ११- अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाए तहारयाणं। निरओवमं जाणिय दुक्खमत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए॥ अमरोपमं ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं, रतानां पर्याये तथाऽरतानाम् । निरयोपमं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं, रमेत तस्मात्पर्याय पण्डितः ॥११॥ ११–संयम में रत मुनियों का सुख देवों के समान उत्तम (उत्कृष्ट )जानकर तथा संयम में रत न रहने वाले मुनियों का दुःख नरक के समान उत्तम (उत्कृष्ट) जानकर पण्डित मुनि संयम में ही रमण करे । १२-धम्माउ भट्ट सिरिओ ववेयं जन्नग्गि विज्झायमिव पतेयं। हीलंति णं दुविहियं कुसीला दादुद्धियं घोरविसं व नागं ॥ धर्माभ्रष्टं श्रियो व्यपेतं, यज्ञाग्नि विध्यातमिवाल्पतेजसम् । होलयन्ति एनं दुविहितं कुशीलाः, उद्ध तदंष्ट्र घोरविषमिव नागम् ॥१२॥ १२-जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों उस घोर विषधर सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्र रूपी श्री से२४ रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि की भांति निस्तेज२५ और दुविहित साधु की२६ कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं। १३-इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेटुओ गई। इहव अधर्मोऽयशोऽकीति:, दुर्नामधेयं च पृथग्जने। च्युतस्य धर्मादधर्मसेविनः, .. संभिन्नवृत्तस्य चाधस्ताद् गतिः ॥१३॥ १३.-धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र का खण्डन करने वाला साधुप इसी मनुष्य-जीवन में अधर्म का आचरण करता है, उसका अयश° और अकीर्ति होती है । साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है तथा उसकी अधोगति होती है। १४-भुजित्त भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहु।। गईच गच्छे अणभिज्झियं दुहं । बोहोय से नो सुलभा पुणो पुणो॥ भुक्त्वा भोगान् प्रसह्य चेतसा, तथाविधं कृत्वाऽसंयम बहुम् । गति च गच्छेदनभिध्यातां दुखां, बोधिश्च तस्य नो सुलभा पुनः पुनः ॥१४॥ १४--वह संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से३१ भोगों को भोगकर और तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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