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प्रथम चूलिका : श्लोक १५-१५
रइवक्का (रतिवाक्या)
५०६ १५ इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो अस्य तावन्नारकस्य जन्तोः,
दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। उपनीतदुःखस्य क्लेशवत्तेः । पलिओवमं झिज्जइ सागरोवमं पल्योपमं क्षीयते सागरोपम, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं?॥ किमङ्ग पुनर्ममेदं मनोदुःखम् ।।१५।।
१५-दु:ख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर यह मेरा मनोदुःख कितने काल का है?
१६... न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई न मे चिरं दुःखमिदं भविष्यति.
असासया भोगपिवास जंतुणो। अशाश्वती भोगपिपासा जन्तोः। न चे सरीरेण इमेणवेस्सई न चेच्छरीरेणानेनापैष्यति, अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ अपैष्यति जीवित-पर्यवेण मे ॥१६॥
१६--यह मेरा दुःख चिर काल तक नहीं रहेगा । जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हुए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो वह अवश्य मिट ही जाएगी।
१७ जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ यस्येवमात्मा तु भवेन्निश्चित:,
चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं । त्यजेहं न खलु धर्मशासनम् । तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया
तं तादृशं न प्रचालयन्तीन्द्रियाणि, उतवाया व सुदंसण गिरि ॥
उपयद्वाता इव सुदर्शनं गिरिम् ॥१७॥
१७-जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित होती है (दृढ़ संकल्पयुक्त होती है)'देह को त्याग देना चाहिए पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ना चाहिए"-उस दृढ़-प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को।
१८-इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो इत्येवं संदृश्य बुद्धिमान्नरः: आयं उवायं विविहं वियाणिया।
आयमुपायं विविध विज्ञाय । काएण वाया अदु माणसेणं कायेन वाचाऽथ मानसेन, तिगृत्तिगुत्तोजिणवयणमहिट्ठिजासि ॥ त्रिगृप्तिगुप्तो जिनवचनमधितिष्ठेत् ॥१८॥ त्ति बेमि॥
इति ब्रवीमि।
१८-बुद्धिमान् मनुष्य इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा विविध प्रकार के लाभ और उनके साधनों को३५ जानकर तीन गुप्तियों (काय, वाणी और मन) से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ले।
ऐसा मैं कहता हूँ।
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