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दुमपुफिया ( द्रुमपुष्पिका )
अध्ययन १ :श्लोक १ टि० ३-५ ३. उत्कृष्ट मंगल ( मंगल मुक्किट्ठ क ) :
जिससे हित हो, कल्याण सधता हो, उसे मंगल कहते हैं। मंगल के दो भेद हैं :-(१) द्रव्य-मंगल-औपचारिक या नाममात्र के मंगल और (२) भाव-मंगल-वास्तविक मंगल । संसार में पूर्ण-कलश, स्वस्तिक, दही, अक्षत, शंख-ध्वनि, गीत, ग्रह आदि मंगल माने जाते हैं। इनसे धन-प्राप्ति, कार्य-सिद्धि आदि मानी जाती है। ये लौकिक मंगल हैं-लोक-दृष्टि में मंगल हैं, पर ज्ञानी इन्हें मंगल नहीं कहते, क्योंकि इनसे आत्मा का कोई हित नहीं सधता । आत्मा के उत्कर्ष के साथ सम्बन्ध रखनेवाला मंगल भाव-मंगल' कहलाता है। धर्म आत्मा की शुद्धि या सिद्धि से सम्बन्धित है, अत: वह भाव-मंगल है ।
धर्म ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है। वह ऐसा मंगल है जो सुख ही सुख रूप है। साथ ही वह दुःख का आत्यन्तिक क्षय करता है, जिससे उसके अंकुर नहीं रह पाते। द्रव्य मंगलों में ऐकान्तिक सुख व आत्यन्तिक दुःख-विनाश नहीं होता। धर्म आत्मा की सिद्धि करने वाला, उसे मोक्ष प्राप्त कराने वाला होता है (सिद्धि त्ति काउणं-नि० ४४) । वह भव-जन्म-मरण के बन्धनों को गलाने वाला-काटने वाला होता है (भवगालनादिति--नि० ४४; हा० टी० प० २४) । संसार-बंधन से बड़ा कोई दुःख नहीं। संसारमुक्ति से बड़ा कोई सुख नहीं। मुक्ति प्रदान करने के कारण धर्म उत्कृष्ट मंगल अनुत्तर मंगल है। ४. अहिंसा ( अहिंसा ख ) :
हिंसा का अर्थ है दुष्प्रयुक्त मन, वचन या काया के योगों से प्राण-व्यपरोपण करना । अहिंसा हिंसा का प्रतिपक्ष है । जीवों का अतिपात न करना अहिंसा है अथवा प्राणातिपात-विरति अहिंसा है । "जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सब जीवों को है। जैसे मैं जीने की कामना करता हूँ वैसे ही सब जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरने की नहीं । अतः मुझे किसी भी जीव को अल्प से अल्प पीड़ा भी नहीं पहुँचानी चाहिए"-ऐसी भावना को समता या आत्मौपम्य कहते हैं । 'सूत्रकृताङ्ग' में कहा है-"जैसे कोई बेंत, हड्डी, मुष्टि, कंबर, ठिकरी आदि से मारे, पीटे, ताड़े, तर्जन करे, दुःख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राग-हरण करे तो मुझे दु.ख होता है; जैसे मृत्यु से लगाकर रोम उखाड़ने तक से मुझे दुःख और भय होता है, वैसे ही सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को होता है-यह सोच कर किसी भी प्राणी भूत, जीव और सत्त्व को नहीं मारना चाहिए, उस पर अनुशासन नहीं करना चाहिए, उसे उद्विग्न नहीं करना चाहिए। यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है।"
यहाँ 'अहिंसा' शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत है। इसलिए मृषावाद-विरति, अदत्तादान-विरति, मैथुन-विरति, परिग्रह-विरति भी इसमें समाविष्ट हैं। ५. संयम ( संजमो ख ) :
जिनदास महत्तर के अनुसार 'संयम' का अर्थ है "उपरम'। राग-द्वेष से रहित हो एकी भाव-समभाव में स्थित होना संयम है | हरिभद्र सूरि ने संयम का अर्थ किया है-"आश्रवद्वारोपरमः"- अर्थात् कर्म आने के हिंसा, मृषा, अदत्त, मैथुन और परिग्रह ये जो पाँच
१- हा० टी० ५०३ : मंग्यले हितमनेनेति मंगलं, मंग्यतेऽधिगम्यते साध्यते इति । २(क) नि० गा० ४४ : दवे भावेऽवि अ मंगलाई दवम्मि पुण्णकलसाई।
धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धित्ति काऊण ॥ (ख) जि० चू० पृ० १६ : जाणि दव्वाणि चेव लोगे मंगलबुद्धीए घेप्पंति जहा सिद्धत्थगदहिसालिअक्खयादीणि ताणि
दव्वमंगल, भावमंगलं पुण एसेव लोगुत्तरो धम्मो, जम्हा एत्थ ठियाण जीवाणं सिद्धी भवइ। ३- (क) जि० चू० पृ० १६ : दव्वमंगलं अणेगंतिगं अणच्चन्तियं च भवति, भावमंगलं पुण एगतियं अच्चंतियं च भवइ । (ख) नि० गा० ४४, हा० टी० प० २४ : अयमेव चोत्कृष्टं प्रधान मंगलम्, ऐकान्तिकत्वात् आत्यन्तिकत्वाच्च, न
पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च । ४-जि० चू० पृ० १५ : उक्किट्ठणाम अणुत्तरं, ण तओ अण्णं उक्किट्ठयरंति । ५--जि० चू० पृ० २० : मणवयणकाएहि जोएहिं दुप्पउत्तेहिं जं पाणववरोवणं कज्जइ सा हिंसा। ६--नि० गा० ४५ : हिंसाए पडिवक्खो होइ"अहिंसऽजीवाइवाओत्ति । ७-(क) जि० चू० पृ० १५ : अहिंसा नाम पाणातिवायविरती।
(ख) दो० टीका पृ० १: न हिंसा अहिंसा जीवदया प्राणातिपातविरतिः । ८--सू०२.१.१५। ६-जि० चू० पृ० १५ : संजमो नाम उवरमो, रागद्दोसविरहियस्स एगिभावे भवइति ।
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