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________________ टिप्पण: अध्ययन १ श्लोक १ १. तुलना : 'धम्मपद' (धम्मढवग्गो १६.६) के निम्नलिखित श्लोक की इससे आंशिक तुलना होती है : यम्हि सच्चं च धम्मो च अहिंसा संयमो दमो । स वे वन्तमलो धीरो सो थेरो ति पवुच्चति ॥ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है : जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम होता है। उस मल रहित धीर भिक्षु को स्थविर कहा जाता है ।। २. धर्म ( धम्मो %): धू' धातु का अर्थ है -धारण करना । उसके अन्त में 'मन्' या 'म' प्रत्यय लगने से 'धर्म' शब्द बनता है। उत्पाद, व्यय और स्थिति—ये अवस्थाएँ जो द्रव्यों को धारण कर रखती हैं उनके अस्तित्व को टिकाए रखती हैं-'द्रव्य-धर्म' कहलाती हैं। गति में सहायक होना, स्थिति में सहायक होना, स्थान देने में सहायक होना, मिलने और बिछुड़ने की शक्ति से सम्पन्न होना, जानने-देखने की क्षमता का होना, धर्म आदि पाँच अस्तिकायों के ये स्वभाव या लक्षण -जो उनके पृथक्त्व को सिद्ध करते हैं और उनके स्वरूप को स्थिर करते हैं –'अस्तिकाय-धर्म' कहे जाते हैं। इसी तरह सुनना. देखना, सूंघना, स्वाद लेना और स्पर्श करना जो जिस इन्द्रिय का प्रचार-विषय-होता है वह उसका 'इन्द्रिय-धर्म' कहलाता है। विवाह्या विवाह्य, भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेयादि के नियम जो किसी स्थान की विवाह तथा खान-पान विषयक परम्परा के निर्णायक होते हैं 'गम्य-धर्म' कहलाते हैं। वस्त्राभूषणादि के रीति-रिवाज जो किसी देश की रहन-सहन विषयक प्रथा के आधारभूत होते हैं देश-धर्म' कहलाते हैं। करादि के विधान जो राज्य की आर्थिक स्थिति को संतुलित रखते हैं 'राज्य-धर्म' कहलाते हैं। गणों की पारस्परिक व्यवस्था जो गणों को संगठित रखती है 'गण-धर्म' कहलाती है। दण्डादि की विधि जो राजसत्ता को सुरक्षित रखती है 'राज-धर्म' कहलाती है । इस तरह द्रव्यों के पर्याय और गुण, इन्द्रियों के विषय तथा लौकिक रीति-रिवाज, देशाचार, व्यवस्था, विधान, दण्डनीति आदि सभी धर्म कहलाते हैं, पर यहाँ उपर्युक्त द्रव्य आदि धर्मों, गम्य आदि सावद्य लौकिक धर्मों और कुप्रावच निक धर्मों को उत्कृष्ट नहीं कहा है। जो दुर्गति में नहीं पड़ने देता वह धर्म यहाँ अभीष्ट है । ऐसा धर्म संयम में प्रवृत्ति और असंयम से निवृत्ति रूप है तथा अहिंसा, संयम और तप लक्षणवाला है । उसे ही यहाँ उत्कृष्ट मंगल कहा है। १-(क) जि० चू० पृ० १४ : 'धृज धारणे' अस्य धातोर्मन्प्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । (ख) हा० टी० प०२० : 'धृञ् धारणे' इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येवं रूपं धर्म इति । २–नि० गा० ४० : दध्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स। ३-जि० चू० पृ० १६ : अत्थि वेज्जति काया य अस्थिकाया, ते इमे पंच, तेसि पंचण्हवि धम्मो णाम सब्भावो लक्खणंति एगट्ठा.....। ४.-जि० चू० पृ० १६ : पयारधम्मा णाम सोयाईण इन्दियाण जो जस्स विसयो सो पयारधम्मो भवइ । ५–(क) नि० गा० ४०-४२ : दव्वं च अस्थिकायप्पयारधम्मो अभावधम्मो अ। दव्वस्स पज्जवा जे ते धम्मा तस्स दव्वस्स ॥ धम्मत्यिकायधम्मो पयारधम्मो य विषयधम्मो य । लोइयकुप्पावणिअ लोगुतर लोगऽणेगविहो । गम्मपसुदेसरज्जे पुरवरगामगणगोटिराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थो । (ख) नि० गा० ४२, हा० टी० प० २२: कुप्रावनिक उच्यते-असावपि सावधप्रायो लौकिककल्प एव । (ग) जि० चू० पृ०१७: वज्जो णाम गरहिओ, सह वज्जेण सावज्जो भवड । (घ) नि० गा०४२, हा० टी०प०२२ : अवयं-पापं, सह अवद्य न सावद्यम् । ६-जि० चू० पृ० १५ : यस्मात् जीवं नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतंतं धारयतीति धर्मः । उक्तं च "दुर्गति-प्रसृतान् जीवान्, यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्थितः ॥" ७–जि० चू० पृ० १७ : असंजम्माउ नियत्ती संजमंमि य पवित्ती। 4-(क) नि० गा० ८६ : धम्मो गुणा अहिंसाइया उ ते परममंगल पइन्ना। (ख) जि० चू० पृ० १५ : अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स एस णिद्देसोत्ति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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