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पढमं अज्झयणं : प्रथम अध्ययन
दुमपुफिया : द्रुमपुष्पिका
मूल
धर्मः
अहिंसा देवा यस्य
संस्कृत छाया
मङ्गलमुत्कृष्टम् सयमः तपः । अपि तं नमस्यन्ति धर्म सदा मनः ॥ १॥
हिन्दी अनुवाद धर्म' उत्कृष्ट मंगल है । अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं।
यथा द्रुमस्य पुष्पेषु भ्रमर आपिबति रसम् । न च पुष्पं क्लामयति स च प्रीणाति आत्मकम ॥२॥
जिस प्रकार भ्रमर द्रुम-पुष्पों से थोड़ाथोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता" और आने को भी तृप्त कर लेता है--
१-'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ
अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति
जस्स धम्मे सया मणो॥ २-जहा दुमस्स पुप्फेसु
भमरो आवियइ रसं । न य पुप्फ किलामेइ
सो य पीणेइ अप्पयं ॥ ३–एमेए२ समणा मुत्ता
जे लोए संति साहुणो५ । विहंगमा व पुप्फेसु
दाणभत्तेसणे रया ।। ४-वयं च वित्ति लब्भामो
न य कोइ उवहम्मई । अहागडेसु रीयंति
पुप्फेसु भमरा जहा ॥ ५---महुकारसमा बुद्धा
जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता तेण वुच्चंति साहुणो ।
त्ति बेमि
एवमेते श्रमणा ये लोके सन्ति विहङ्गमा इव दानभक्तषणे
मुक्ताः साधवः । पुष्पेषु रताः ।। ३॥
उसी प्रकार लोक में जो मुक्त (अपरिग्रही)श्रमण१४ साधु हैं वे दानभक्त१७ (दाता द्वारा दिये जानेवाले निर्दोष आहार) का एपणा म रत रहत ह, जस-भ्रमर पुष्पों में।
हम इस तरह से वृत्ति-भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो। क्योंकि श्रमण यथाकृत (सहज रूप से बना) आहार लेते हैं, जैसे --भ्रमर पुष्पों से रस ।
वयं च वृत्ति लप्स्यामहे न च कोप्युपहन्यते । यथाकृतेषु
रीयन्ते पुष्पेषु भ्रमरा
यथा ॥ ४ ॥
मधुकरसमा
बुद्धाः ये
भवन्त्यनिश्रिताः । नानापिण्डरता दान्ताः तेन उच्यन्ते साधवः ॥ ५॥
इति ब्रवीमि
जो बुद्ध पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित हैं२१-किसी एक पर आश्रित नहीं, नाना पिंड में रत हैं२२ और जो दान्त हैं२३ वे अपने इन्हीं गुणों से साधु कहलाते हैं २४ ।
ऐसा मैं कहता हूँ।
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