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दसवेनालियं ( दशवैकालिक )
अध्ययन १: श्लोक ३-४ टि०१८-२० आद धर्मों से श्रमण की भ्रमर के साथ तुलना होती है, किन्तु सभी धर्मों से नहीं । भ्रमर अदत्त रस भले ही पीता हो किन्तु श्रमण अदत्त लेने की इच्छा भी नहीं करते। १८. एषणा में रत ( एसणे रया घ):
साधु को आहारादि की खोज, प्राप्ति और भोजन के विषय में उपयोग- सावधानी रखनी होती है, उसे एषणा-समिति कहते हैं । एषणा तीन प्रकार की होती हैं : (१) गोचर्या के लिये निकलने पर साधु आहार के कल्प्याकल्प्य के निर्णय के लिये जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है, उसे गो । एषणा गवेषणा कहते हैं । (२) आहार आदि को ग्रहण करते समय साधु जिन-जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है, उसे ग्रहणपणा कहते हैं। (३) मिले हुए आहार का भोजन करते समय साधु जिन नियमो का पालन अथवा दोषों का निवारण करता है, उन्हें परिभोगेषणा कहते हैं।' नियुक्तिकार ने यहाँ प्रयुक्त 'एषणा' शब्द में तीनों एषणाओं को ग्रहण किया है । अगस्त्यसिह चूणि और हारिभद्रीय टीका में भी ऐसा ही अर्थ है । जिनदास महत्तर 'एषणा' शब्द का अर्थ केवल गवेषणा करते हैं । एषणा में रत होने का अर्थ है—एषणा-समिति के नियमों में तन्मय होना —पूर्ण उपयोग के साथ समस्त दोषों को टालकर गवेषणा आदि करना।
श्लोक ४: १६. हम ( वयं क ) :
गुरु शिष्य को उपदेश देते हैं कि यह हमारी प्रतिज्ञा है-"हम इस तरह से वृत्ति—भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो।"
यहाँ प्रथम पुरुष के प्रकरण में जो उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है उसके आधार पर अन्य कल्पना भी की जा सकती है । ५।२।५ और ८।२० के श्लोक के साथ जैसे एक-एक घटना जुड़ी हुई है, वैसे यहाँ भी कोई घटना जुड़ी हुई हो, यह सम्भव है । वहाँ (जि. चू० पृ० १९५, २८०) वर्णिकार ने उसका उल्लेख किया है, यहाँ न किया हो । जैसे कोई श्रमण भिक्षा के लिए किसी नवागन्तुक भक्त के घर पहुँचे । गृहस्वामी ने वन्दना की और भोजन लेने के लिए प्रार्थना की।
श्रमण ने पूछा--- "भोजन हमारे लिए तो नहीं बनाया ?" गृहस्वामी सकुचाता हुआ बोला...."इससे आपको क्या ? आप भोजन लीजिये।" श्रमण ने कहा- "ऐसा नहीं हो सकता । हम उद्दिष्ट-अपने लिए बना भोजन नहीं ले सकते ।" गृहस्वामी---"उद्दिष्ट भोजन लेने से क्या होता है ?" श्रमण_"उद्दिष्ट भोजन लेनेवाला श्रमण बस-स्थावर जीवों की हिंसा के पाप से लिप्त होता है।" गृहस्वामी--"तो आप जीवन कैसे चलायेंगे ?"
श्रमण --"हम यथाकृत भोजन लेगे।" २०. यथाकृत ( अहागडेसु " ) :
__गृहस्थों के घर आहार, जल आदि उनके स्वयं के उपयोग के लिए उत्पन्न होते रहते हैं । अग्नि तथा अन्य शस्त्र आदि से परिणत अनेक प्रासुक निर्जीव वस्तुएँ उनके घर रहती हैं। इन्हें 'यथाकृत' कहा जाता है। इनमें से जो पदार्थ सेव्य हैं, उन्हें श्रमण लेते हैं।
१- (क) नि० गा० १२६ : उवमा खलु एस कया पुव्वुत्ता देसलक्खणोवणया। अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालणट्ठाए ।
(ख) नि० गा० १२४ : अवि भमरमहुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवंतो नादिन्नं भोत्तुमिच्छति ॥ २ ---उत्त० २४ : २ : इरियाभासेसणादाणे उच्चारे समिई इय । ३ -(क) उत्त० २४ : ११ : गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणाय य । आहारोवहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए।
(ख) उत्त० २४ : १२ : उग्गमुप्पायण पढमे बीए सोहेज्ज एसण । परिभोयम्मि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई॥ ४-नि० गा० १२३ : एसणतिगंमि निरया॥ ५--(क) अ० चू० : एसगे इति गवेषण-गहण-घासेसणा सूइता ।
(ख) हा० टी० प०६८ : एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः । ६- जि० चू० पृ० ६७ : एसणागहणेण दसएसणादोसपरिसुद्ध गेण्हंति, ते य इमे तंजहा :--
___संकियमक्खियनिक्खित्तपिहियसाहरियदायगुम्मोसे । अपरिणयलित्तछड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥ ७-भा. गा० ३, हा० टी० ५० ६४ : अप्फासुयकयकारियअणुमय उद्दिट्ठभोइणो हंदि । तसथावरहिसाए जणा अकुसला उ लिप्पति । ८-हा० टी०प०७२ : 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिर्वतितेष्वाहारादिषु ।
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