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स- भिक्खु (सभिक्षु )
अध्ययन १० दलोक २०-२१ टि० ७०-७३
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श्लोक २०:
७०. आर्यपद ( धर्मपद ) ( अज्जपर्य) :
चूर्णयों में इसके स्थान पर 'अज्जवयं' पाठ है और इसका अर्थ ऋजुभाव है' । 'अज्जवयं' की अपेक्षा 'अज्जपयं' अधिक अर्थसंग्राहक है, इसलिए मूल में वही स्वीकृत किया है।
७१. कुशील-लिङ्ग का ( कुसीलिंग) :
इसका अभिप्राय यह है कि परतीर्थिक या आचार- रहित स्वतीर्थिक साधुओं का वेष धारण न करे । इसका दूसरा अर्थ है जिस आचरण से कुशील है, ऐसी प्रतीति हो, वैसे आचरण का वर्जन करे । टीका के अनुसार कुशीलों द्वारा चेष्टित आरम्भ आदि का वर्जन करें ।
७२. जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतुहलपूर्ण चेष्टा नहीं करता ( न यावि हरसकुहए व )
कुहक शब्द 'कुह' धातु से बना है। इसका प्रयोग विस्मय उत्पन्न करने वाला, ऐन्द्रजालिक, वञ्चक यहाँ पर विस्मित करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है हास्यपूर्ण कुतुहल न करे अथवा दूसरों को हंसाने के लिए दोनों अर्थ अस्वस्थ करते है जिनदास महतर और हरिभद्रसूरि केवल पहला ।
दश० ६.३.१० में 'अक्कुहए' शब्द प्रयुक्त हुआ है । वहाँ इसका अर्थ इन्द्रजाल आदि न करने वाला तथा वादित्र न बजाने वाला किया है
श्लोक २१ :
७३. अनुचि और शाश्वत देहवास को ( देह्यास असुई असासयं क ) :
अशुचि अर्थात् अशुचिपूर्ण और अशुचि से उत्पन्न । शरीर की अशुचिता के सम्बन्ध में सुत्तनिपात अ० ११ में निम्न अर्थ की गाथाएँ मिलती हैं :
"हड्डी और नस से संयुक्त, त्वचा और मांस का लेप चढ़ा तथा चाम से ढँका यह शरीर जैसा है वैसा दिखाई नहीं देता ।
१ (क) अ० चू० : ऋजुभावं दरिसिज्जति ।
(ख) जि० ० ० ३४८ साधूण य पवेदेज्जा ।
२६० टी० प० २६६ 'आर्यपदम्' शुद्धधर्मपदम् । हा०
३-अ० चू० : पंडुरंगादीण कुसीलालंग वज्जेज्जा । अणायरादिवा कुसौललिंगं न रक्खए । कुसीला बंडुरंगाई लिगं अथवा वेण आवरिएण कुसीलो संभाविज्जति तं । कुशीतलिङ्गम्' आरम्भादिवेष्टितम् ।
४ (क) जि०० पृ० ३४० (ख) हा० टी० १० २६६
:
५-२० ० हस्तमेव मुन्नति । एवं
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आदि अर्थों में होता है । पूर्ण चेष्टा न करे ये
जण हसाइणस्त्र एवारिता धम्मस्स गहर्ष कथं तं परियं धम्मपदं विही
६ - ( क ) जि० चू० पृ० ३४८ : हासकहए णाम ण ताणि कुहगाणि कुज्जा जेण अन्ने हसंतीति । (ख) हा० टी० प० २६६ : न हास्यकारिकुहकयुक्तः ।
।
तं जरस अस्थि सो हस्तो तथा न भवे हस्तनिमितं वा कुह तथाकरेति जथा परस्त हस्त याचि हसाए ।
(क) अ० चू० : इंद-जाल-कुहेडगादीहिं ण कुहावेति णति कुहाविज्जति अकुहए ।
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(स) जि० ० ० ३२९ कुह 'बजासादीयं न करेइति अति (ग) हा० डी० प० २५४
इन्द्रादिरहितः।
वि०० ०३२२ वा बाइलादि कुन्दनकरे अकुहति ।
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