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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
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अध्ययन १० : श्लोक २१ टि०७३ "इस शरीर के भीतर हैं-आंत, उदर, यकृत, वस्ति, हृदय, फुप्फुस, वक्क-तिल्ली, नासा-मल, लार, पसीना, मेद, लोहू, लसिका, पित्त और चर्बी।
"उसके नौ द्वारों से हमेशा गन्दगी निकलती रहती है । आँख से आँख की गन्दगी निकलती है और कान से कान की गन्दगी। "नाक से नासिका-मल, मुख से पित्त और कफ, शरीर से पसीना और मल निकलते हैं। "इसके सिर की खोपड़ी गुदा से भरी है । अविद्या के कारण मूर्ख इसे शुभ मानता है। "मृत्यु के बाद जब यह शरीर सूजकर नीला हो श्मशान में पड़ा रहता है तो उसे बन्धु-बांधव भी छोड़ देते हैं।"
ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में शरीर की अशाश्वता के बारे में कहा गया है कि 'यह देह जल के फेन की तरह अध्र व है; बिजली के झपकारे की तरह अशाश्वत है; दर्भ की नोक पर ठहरे हुए जल-बिन्दु की तरह अनित्य है।" देह जीवरूपी-पक्षी का अस्थिरवास कहा गया है क्योंकि जल्दी या देर से उसे छोड़ना ही पड़ता है।
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