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दसवेआलियं (दशवकालिक) ४४८ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक २३ टि० ३३-३६ ३३. जो साहसिक है ( साहस ख ) :
___ इसका अर्थ है-बिना सोचे-समझे आवेश में कार्य करने वाला अथवा 'अकृत्य कार्य करने में तत्पर"। इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष हुआ है । प्राचीन साहित्य में इसका प्रयोग चोर, हिंसक, शोषक आदि के अर्थ में होता था, परन्तु कालान्तर में इसका अर्थ शक्तिशाली, संकल्पवान् हुआ है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'साहस' को हिंसा का पर्यायवाची शब्द माना है। कोशकार होरेस हेमेन विल्सन ने 'साहस' के हिंसा और शक्ति दोनों अर्थ किए हैं परन्तु 'साहसिक' का हिंसापरक अर्थ ही किया है।
३४. जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता ( होणपेसणे ख ):
'पेसण' का अर्थ है नियोजन, कार्य में प्रवृत्त करना, आज्ञा आदि। जो शिष्य अपने गुरु की आज्ञा को हीन- लधु करता हैयथासमय उसका पालन नहीं करता, वह हीन-प्रेषण कहलाता है ।
३५. जो असंविभागी है ( असंविभागी) :
जो अपने लाए हुए आहार आदि का दूसरे समानधर्मी साधुओं को संविभाग नहीं देता, वह 'असंविभागो' कहलाता है। 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' -यह धर्म-सूत्र आधुनिक समाजवाद की भावना का प्रतिनिधि-वाक्य है ।
श्लोक २३:
३६. जो गोतार्थ हैं ( सुयत्थधम्मा ख ) :
अगस्त्य चूणि में इसका अर्थ गीतार्थ किया है और इसकी व्युत्पत्ति 'जिसने अर्थ और धर्म सुना है' की है। जिनदास घृणि में भी इसकी दो व्युत्पत्तियाँ ( जिसने अर्थ-धर्म सुना हैं अथवा धर्म का अर्थ सुना हैं ) मिलती हैं। टीकाकार दूसरे व्युत्पत्तिक अर्थ को मानते हैं।
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१-(क) अ० चू० : रभसेण किच्चकारी साधसो।
(ख) जि० चू० पृ० ३१७ : साहसो णाम जं किंचि तारिसं तं असंकिओ चेव पडिसेवतित्तिकाऊण साहस्सिओ भण्णइ ।
(ग) हा० टी० प० २५१ : ‘साहसिकः' अकृत्यकरणपरः । २--प्रश्न संवरद्वार १। ३.-A Sanskrit-English Dictionary. Page 986. : साहस oppression, cruelty, violence, strength. साहसिक ___violent, Brutal, etc. ४-(क) अ० चू० : पेसणं जधाकालं मुपपादयितुमसत्तो होणपेसणो।
(ख) जि० चू० पृ० ३१७ : जो य पेसण तं आयरिएहि दिन्नं तं देसकालादीहिं हीणं करेतित्ति होणपेसणे ।
(ग) हा० टी० प० २५१ : 'हीनप्रेषणः' हीनगुर्वाज्ञापरः। ५--(क) अ० चू० : असंविभयणसीलो-असंविभागी।
(ख) जि० चू० पृ० ३१७ : संविभायणासोलो संविभागी, ण संविभागी असंविभागी। (ग) हा० टी० प० २५१ : यत्र क्वचन लाभे न संविभागवान् । (घ) उत्त० १७.११ बृ० वृ० : संविभजति-गुरुग्लानबालादिभ्य उचितमशनादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागीन तथा य
आत्म-पोषकत्वेनैव सोऽसंविभागी। ६--अ० चू० : सुतो अत्थो धम्मो जेहि ते सुतत्थधम्मा। ७-जि०चू०पृ०३१७ : सुयोऽत्थधम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा, गीयस्थित्ति वुत्तं भवइ,अहवा सुओ अत्थो धम्मस्स जेहिं ते सुतत्थधम्मा। -हा० टी०प० २५१ : 'श्रुतार्थधर्मा' इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः ।
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