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________________ विणयसमाही ( विनय-समाधि ) ४४७ अध्ययन ६ (द्वि० उ०) : श्लोक २१-२२ टि० २६-३२ लाए। जैसे-शरद्-ऋतु में वात-पित्त हरने वाले द्रव्य, हेमन्त में उष्ण, बसन्त में श्लेष्म हरने वाले, ग्रीष्म में शीतकर और वर्षा में उष्ण आदि-आदि। २६. अभिप्राय ( छंदं क ) : शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य की इच्छा को जाने । देश-काल के आधार पर इच्छाएं भी विभिन्न होती हैं, जैसे किसी को छाछ आदि, किसी को सत्तू आदि इष्ट होते हैं । क्षेत्र के आधार पर भी रुचि की भिन्नता होती है, जैसे-कोंकण देश वालों को पेया प्रिय होती है, उत्तरापथ वासियों को सत्तू आदि-आदि । ३०. आराधन-विधि ( उवयारं क ) : अगस्त्य घुणि में 'उबयार' का अर्थ आज्ञा, जिनदास चूणि में 'विधि'५ और टीका में 'आराधना का प्रकार किया है। श्लोक २१ : ३१. सम्पत्ति (संपत्ती ख ) : ___ इसका अर्थ है सम्पदा । अगस्त्य पूणि में इसका अर्थ कार्य-लाभ और टीका में सम्प्राप्ति किया है। श्लोक २२ : ३२. जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है ( मइइड्ढिगारवे क): जो मति द्वारा ऋद्धि का गर्व वहन करता है, जो जातीयता का गर्व करता है और जो ऋद्धि-गौरव में अभिनिविष्ट है१२-ये क्रमश: अगस्त्य पूर्णि, जिनदास धूणि और टीका के अर्थ हैं । मति अर्थात् श्रुत और ऋद्धि-ऐश्वर्य का गर्व-यह इसका सरल अर्थ प्रतीत होता है। १-अ० चू०: जधा कालं जोग्गं भोजणसयणासणादि उवणेयं । २-जि० चू० पृ० : ३१५-१६ : तत्थ सरदि वातपित्तहराणि दब्वाणि आहरति, हेमन्ते उण्हाणि, वसंते हिमहराणि (सिभहराणि), गिम्हे सीयकरणानि, वासासु उण्हवण्णाणि (उण्णवण), एवं ताव उडु उडु पप्प गुरूण अट्ठाए दव्वाणि आहरिज्जा, तहा उर्दू पप्प सेज्जमवि आणेज्जा। ३--जि० चू० पृ० ३१६ : छन्दो णाम इच्छा भण्णइ, कयाइ अणु दुप्पयोगवि दव्वं इच्छति, भणियं च- 'अण्णस्स पिया छासी मासी अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिया य बहुडोहलो लोगो।' तहा कोई सत्तुए इच्छइ कोति एगरसं इच्छइ, देसं वा पप्प अण्णस्स पियं जहा कुदुक्काणं कोंकणयाण पेज्जा, उत्तरापहगाणं सत्तुया, एवमादि । ४-अ० चू० : उवयारो आणा कोति आणत्तिआए तूसति । ५ - जि० चू० पृ० ३१६ : 'उवयार' णाम विधी भण्णइ । ६-हा० टी०प० २५० : 'उपचारम्' आराधनाप्रकारम् । ७--जि० चू० पृ० ३१६ : अट्ठीहिं विणीयस्स संपदा भवति । ८-अ० चू० : संपत्ती कज्जलाभो। E-हा० टी०प० २५१ : संप्राप्तिविनीतस्य च ज्ञानादिगुणानाम् । १०-अ० चू० : जो मतीए इड्डिगारवमुवहति । ११-जि० चू० पृ० ३१६ : जातीए इड्डिगारवं वहति, जहाऽहं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादे लग्गिहामिति मति इदशी गारवो भण्णति । १२-हा० टी० ५० २५१ : 'ऋद्धिगौरवमतिः' ऋद्धिगौरवे अभिनिविष्टः । Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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