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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) २३० अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) : श्लोक ३५ टि० १३७-१३८ दशकालिक के व्याख्याकारों ने उत्कृष्ट का अर्थ सुष्टि, तिल, गेहूँ और यवों का आटा या ओखली में फूटे हुए इगली या पीलुपर्णी के पत्र, लौकी, तरबूज आदि किया है । ग १३७ अ और संसुद्ध को जानना चाहिए (असंपट्ठे संसदट्ठे चैव बोध प ) : बोधव्वे सजीव पृथ्वी, पानी और वनस्पति से भरे हुए हाथ या पात्र को संसृष्ट-हस्त या संसृष्ट-पात्र कहा जाता है । निशीथ में संसृष्ट- हस्त के २१ प्रकार बतलाए हैं "बल्ले सिणि ससरवसे मटिटया उसे लोणे य हरियाले मणोसिलाए, रसगए गेख्य सेटीए ॥ १ ॥ हिंगुलु अंजणे लोद्धे, कुक्कुस पिट्ठ कंद मूल सिंगबेरे य । पुप्फक कुट्ठ एए, एक्कवीसं भवे हत्या ॥ २ ॥" निशी भाध्य गाथा १४७ की पूष्टि के अठारह प्रकार बतलाए है पुरेकम्मे कामे उदले समिि , हरियाणा जीवय सेडियमोर पि कुकुष इनमें पुरा-कर्म, पश्चात् कर्म, उदकार्ड और सस्निग्ध-ये अकाय से सम्बन्धित हैं । पिष्ट, कुक्कुस और उत्कृष्ट--- ये वनस्पतिकाय से संबन्धित हैं । इनके सिवाय शेष पृथ्वीकाय से संबन्धित है । " 1 उक्कट्ठ आयार चूला १150 में 'उक्कट्ठ' के आगे 'संसट्ठ' शब्द और है । यहाँ उसके स्थान में 'कए' है पर वह 'कुक्कुस' के आगे है । के आगे 'कप, कड, संसट्ट' जैसा कोई शब्द नहीं है, इसलिए अर्थ में थोड़ी अस्पष्टता आती है । यह सचित्त वस्तु से संसृष्ट आहार लेने का निषेध और उससे असंसृष्ट आहार लेने का विधान है । 1 सजातीय प्रासुक आहार से प्रसंसृष्ट हाथ आदि से लेने का निषेध और ससृष्ट हाथ आदि से लेने का जो विधान है, वह असंसृष्ट और संसृष्ट शब्द के द्वारा बताया गया है। टीकाकार "विधि पुनरत्रोर्ध्वं वक्ष्यति स्वयमेव" इस वाक्य के द्वारा सजातीय प्रासुक आहार से असंसृष्ट और संसृत्र हाथ आदि का सम्बन्ध अगले दो इलोकों से जोड़ देते हैं । तैंतीसवी गाथा के 'एवं' शब्द के द्वारा "दव्वीए भायणेण वा देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं" की अनुवृत्ति होती है। इलोक ३५ १३८. जहाँ पश्चात् कर्म का प्रसङ्ग हो ( पच्छाकम्मं जहि भवे घ ) : जिस वस्तु का हाथ आदि पर लेप लगे और उसे धोना पड़े वैसी वस्तु से अलिप्त हाथ आदि से भिक्षा देने पर पश्चात् कर्म दोष का प्रसङ्ग आता है । भिक्षा देने के निमित्त जो हस्त, पात्र आदि आहार से लिप्त हुए हों उन्हें गृहस्य सचित्त जल से धोता है, अतः पश्चात्कर्म होने की सम्भावना को ध्यान में रखकर असंसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का निषेध तथा संसृष्ट हाथ और पात्र से भिक्षा लेने का विधान किया गया है। रोटी आदि सूखी चीज, जिसका लेप न लगे और जिसे देने के बाद हाथ आदि धोना न पड़े, वह असंसृष्ट हाथ आदि से भी ली जा सकती है । 1 १- (क) अ० चू० पृ० ११० : उक्कुट्ठे थूरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जवपिट्ठे वा अंबिलिया पीलुपष्णियातीणि वा उक्खल छुष्णादि । fo (ख) जि० ० पृ० १७६ नामोडियकालिगादीणि उक्त। (ग) हा० डी० पं० १७० तथोत्कृष्ट इति उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालफलादीनां शस्त्रकृतानि चिणिकादिपत्र समुदायो वा उखलकण्डित इति । खण्डानि भयन्ते २- नि० भा० गा० १४७ । ३ - आ० ० १ / ८० वृ: संसृष्टेन हस्तादिना टीयमानं न गृह्णीयात् इत्येवमादिना तु असंसृष्टेन तु गृह्णीयात् इति । ४- नि० भा० गा० १८५२ : Jain Education International माकिरपाक होत असतो ब करमतेहि तु सम्हा, संसद् हि भवे ग्रहणं ॥ ५- (क) अ० चू० पृ० ११०: असंसट्टा अण्णादीहिं अणुवलित्तो तत्थ पच्छेकम्मदोसो । सुबकपोयलिदमादि देतीए घेप्पति । (ख) जि० ० ० १०८ अवेदमं दधिमाह देन्ना, तस्य पाकम्मोसोसिकाउंन घेप्पर सुखपूलिया दिनद fo तो घेप्पइ । (ग) हा० टी० प० १७० रुकमण्डकादिवत् तदम्पदोषरहितं गृह्णीयादिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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