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________________ बीयं अज्झयणं : द्वितीय अध्ययन सामण्णपुवयं : श्रामण्यपूर्वक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १-'कहनु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए । पए पए विसीयंतो संकप्पस्स वसं गयो । कथं नु कुर्याच्छामण्य, यः कामान्न निवारयेत् । पदे पदे विषीदन्, सङ्कल्पस्य वशं गतः ॥१॥ वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पगपग पर विषादग्रस्त होता है५ ? २-वत्थगन्धमलंकारं इत्थीयो सयणाणि य । अच्छन्दा जे न भुंजन्ति न से चाइ ति बुच्चइ ॥ वस्त्रं गन्धं अलङ्कार, स्त्रियः शयनानि च । अच्छन्दा ये न भुञ्जन्ति, न ते त्यागिन इत्युच्यते ॥२॥ जो परवश (या अभावग्रस्त) होने के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन-आसनों का उपभोग नहीं करता बह त्यागी नहीं कहलाता। ३-जे य कन्ते पिए भोए लद्धे विपिट्टिकुबई । साहीणे चयइ भोए से हु चाइ ति वुच्चइ ॥ यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धान् विपृष्ठीकरोति । स्वाधीनः त्यजति भोगान्, स एव त्यागीत्युच्यते ॥३॥ त्यागी वही कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग" उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है१२ और स्वाधीनता पूर्वक भोगों का त्याग करता है । ४-समाए पेहाए परिव्वयंतो सिया मरणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नोवि अहं पि तीसे इच्चेव तायो विणएज्ज रागं॥ समया प्रेक्षया परिव्रजन् (तस्य), स्यान्मनो निःसरति बहिस्तात् । न सा मम नापि अहमपि तस्याः , इत्येवं तस्या विनयेद् रागम् ॥ ४ ॥ समदृष्टि पूर्वक१४ विचरते हुए भी५ यदि कदाचित्६ मन (संयम से) बाहर निकल जाय तो यह विचार कर कि वह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ।८ मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे। ५-"आयावयाही चय सोउमल्लं कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दाहि दोसं विणएज्ज रागं एवं सुही होहिसि संपराए ॥ आतापय त्यज सौकुमार्य, कामान् काम क्रान्तं खलु दुःखम् । छिन्धि दोषं विनयेद् राग, एवं सुखी भविष्यसि सम्पराये ॥५॥ __ अपने को तपा२२ । सुकुमारता२३ का त्याग कर । काम-विषय-वासना का अंतिक्रम कर। इससे दुःख अपने-आप अतिक्रांत होगा। द्वेष-भाव को छिन्न कर । रागभाव२५ को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार (इहलोक और परलोक) में सुखी होगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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