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________________ दसवेधालियं ( दशवेकालिक ) जलियं जोई 25 धूमके दुरासयं । नेच्छन्ति वन्तयं बन्तयं भोतुं कुले जाया अगन्धणे ॥ ६ - पक्खन्दे जसोकामी जो तं जीविकाररणा । वन्तं इच्छसि सेयं ७- घिरते आवेजं ते मरणं भवे ॥ पग्रहं तं चsसि भोयरायस्स च अन्धवहो । मा कुले गन्धणा होमो संजमं निओ चर ॥ तं काहिसि भावं ६ - जइ जा जा दच्छसि नारिओ बाबाइढो स्व हडो श्रयिप्पा भविस्ससि ॥ १०- तीसे सो वयणं सोप्या संजयाए अंकुसेग जहा नागो सुभाषियं । धम्मे संपडिवाइस | ११ एवं पण्डिया Jain Education International करेन्ति संबुद्धा विरिणयन्ति जहा से पवित्रणा | भोगे पुरिसोत्तमो ॥ त्ति बेमि २० प्रस्कन्दन्ति प्रचलित ज्योतिषं धूमकेतुं नेच्छन्ति कुले यह धिगस्तु त्वां यशस्काम, जीवितकारणात् । यस्त्वं त्वं वान्तमिवा श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥ ७ ॥ मा संयम वान्तकं जाता यथा यदि या या वाताविव अस्थितात्मा तस्या: स वचनं संयतायाः अंकुशेन धम च चाऽसि कुले गन्थनी भूव, एवं पण्डिताः विनिवर्तन्ते दुरासदम् । भोक्तु, अगन्धने ॥ ६ ॥ 1 त्वं करिष्यसि भावं, द्रक्ष्यसि नारीः । हटः, इव भविष्यसि ॥ ६ ॥ कुर्वन्ति स भोजराजस्य, अग्यवृष्येः । यथा निभृतश्च ॥ ८ ॥ श्रुत्वा, सुभाषितम् । नागो, सम्प्रतिपादितः ॥ १० ॥ सम्बुद्धा:, प्रविचक्षणाः । भोगेभ्यः, पुरुषोत्तमः ।। ११ ।। इति ब्रवीमि । For Private & Personal Use Only अध्ययन २ श्लोक ६-११ अगंधन में उत्पन्न सर्प ज्वलित, कुल विकराल, धूमकेतु ६ - अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते" । ! हे यशःकाधिकार है तुझे ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए भी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है । मैं भोजराज की पुत्री (राजीमती) १५ और तू अंधकवृष्णि का पुत्र ( रथनेमि ) है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों । तू निभृत हो— स्थिर मन हो - संयम का पालन कर । यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थितात्मा हो जायेगा । 35 संयमिनी (राजीमती) के इन सुभा पिवचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गये, जैसे अंकुश से नागहावी होता है। और प्रविचक्षण ४० 1 सम्बुद्ध, पण्डित पुरुष ऐसा ही करते हैं वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम" रथनेमि हुए। मैं ऐसा कहता हूँ । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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