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दसवेधालियं ( दशवेकालिक )
जलियं जोई
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धूमके
दुरासयं ।
नेच्छन्ति वन्तयं बन्तयं भोतुं
कुले जाया अगन्धणे ॥
६
- पक्खन्दे
जसोकामी
जो तं जीविकाररणा ।
वन्तं इच्छसि
सेयं
७- घिरते
आवेजं
ते मरणं भवे ॥
पग्रहं तं चsसि
भोयरायस्स च अन्धवहो ।
मा कुले गन्धणा होमो संजमं निओ चर ॥
तं काहिसि भावं ६ - जइ जा जा दच्छसि नारिओ बाबाइढो स्व हडो श्रयिप्पा भविस्ससि ॥
१०- तीसे सो वयणं सोप्या संजयाए अंकुसेग जहा नागो
सुभाषियं ।
धम्मे
संपडिवाइस |
११ एवं पण्डिया
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करेन्ति संबुद्धा
विरिणयन्ति
जहा से
पवित्रणा |
भोगे पुरिसोत्तमो ॥
त्ति बेमि
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प्रस्कन्दन्ति प्रचलित ज्योतिषं
धूमकेतुं
नेच्छन्ति
कुले
यह
धिगस्तु त्वां यशस्काम, जीवितकारणात् ।
यस्त्वं
त्वं
वान्तमिवा
श्रेयस्ते मरणं भवेत् ॥ ७ ॥
मा
संयम
वान्तकं
जाता
यथा
यदि
या या
वाताविव अस्थितात्मा
तस्या: स वचनं
संयतायाः
अंकुशेन
धम
च
चाऽसि
कुले गन्थनी भूव,
एवं
पण्डिताः
विनिवर्तन्ते
दुरासदम् । भोक्तु, अगन्धने ॥ ६ ॥
1
त्वं करिष्यसि भावं, द्रक्ष्यसि
नारीः । हटः,
इव
भविष्यसि ॥ ६ ॥
कुर्वन्ति
स
भोजराजस्य,
अग्यवृष्येः ।
यथा
निभृतश्च ॥ ८ ॥
श्रुत्वा, सुभाषितम् । नागो, सम्प्रतिपादितः ॥ १० ॥
सम्बुद्धा:, प्रविचक्षणाः ।
भोगेभ्यः, पुरुषोत्तमः ।। ११ ।।
इति ब्रवीमि ।
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अध्ययन २ श्लोक ६-११
अगंधन में उत्पन्न सर्प ज्वलित, कुल विकराल, धूमकेतु ६ - अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते" ।
!
हे यशःकाधिकार है तुझे ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए भी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है ।
मैं भोजराज की पुत्री (राजीमती) १५ और तू अंधकवृष्णि का पुत्र ( रथनेमि ) है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों । तू निभृत हो— स्थिर मन हो - संयम का
पालन कर ।
यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थितात्मा हो जायेगा ।
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संयमिनी (राजीमती) के इन सुभा पिवचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गये, जैसे अंकुश से नागहावी होता है।
और प्रविचक्षण ४०
1
सम्बुद्ध, पण्डित पुरुष ऐसा ही करते हैं वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम" रथनेमि हुए।
मैं ऐसा कहता हूँ ।
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