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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) १८ अध्ययन २ : आमुख _ "(जब अरिष्टनेमि प्रव्रजित हो गये । तब उनके ज्येष्ठ-भ्राता रथनेमि राजीमती को प्रसन्न करने लगे, जिससे कि वह उन्हें चाहने लगे। भगवती राजीमती का मन काम-भोगों से निविण्ण-उदासीन हो चुका था। उसे रथनेमि का अभिप्राय ज्ञात हो गया । एक बार उसने मधु-घृत संयुक्त पेय पिया और जब रथनेमि आये तो मदनफल मुख में ले उसने उल्टी की और रथनेमि से बोली- 'इस पेय को पीयो।' रथनेमि बोले- 'वमन किये हुए को कैसे पीऊँ ?' राजीमती बोली-...'यदि वमन किया हुया नहीं पीते तो मैं भी अरिष्टनेमि स्वामी द्वारा वमन की हुई हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करते हो । इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है ?' इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा। रथनेमि समझ गए और प्रव्रज्या ली। राजीमती भी उन्हें बोध दे प्रवजित हुई। ___ "बाद में किसी समय रथनेमि द्वारिका में भिक्षाटन कर वापस अरिष्टनेमि के पास पा रहे थे।) रास्ते में वर्षा से घिर जाने से एक गुफा में प्रविष्ट हुए । राजीमती अरिष्टनेमि के वंदन के लिए गई थी। वन्दन कर वह वापस पा रही थी। रास्ते में वर्षा शुरू हो गई। भीग कर वह भी उसी गुफा में प्रविष्ट हुई, जहाँ रथनेमि थे । वहाँ उसने भीगे वस्त्रों को फैला दिया। उसके अंग-प्रत्यंगों को देख रथनेमि का भाव कलुषित हो गया । राजीमती ने अब उन्हें देखा । उनके अशुभ भाव को जानकर उसने उन्हें उपदेश दिया।" इस अध्ययन की सामग्री प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु में से ली गई है, ऐसी पारम्परिक धारणा है। इस अध्ययन के पांच श्लोक [७ से ११] 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २२ वें अध्ययन के श्लोक ४२, ४३, ४४, ४६, ४६ से अक्षरशः मिलते हैं। धिरत्थु ते जसोकामी जो तं जीवित कारणा । वंतं इच्छसि आवेउं सेगं ते मरणं भवे ।। ७ ।। ...कयाति रहणेमी बारवतीतो भिक्खं हिडिऊण सामिसगासमागच्छतो वद्दलाहतो एग गहमणुपविट्ठो। रातीमती य भगवतमभिवन्दिऊण तं लपणं गच्छंती 'वासमुवगत' ति तामेव गुहामुवगत। तं पृथ्वपविठ्ठमपेक्खमाणी उदओल्लनुपरिवत्थं णिप्पिलेऊ बिसारेती विवसणोपरिसरीरा दिठ्ठा कुमारेण, वियलियधितो जातो। सा हु भगवती सनिव्वलसत्ता तं दटुं तस्स बसकित्तिकित्तणेण संजमे धीतिसमुप्पायणत्थमाह : अहं च भोगरातिस्स तं च सि अंधगवहिणो। मा कुले गंधणा होमो संजमं णिहुओ नर ।। ८ ।। जाति तं काहिसि भावं जा जा दच्छसि णारीतो। वाताइद्धो ब्व हढो अतिप्पा. भविस्ससि ॥ ६ ॥ अगस्त्यसिंह स्थविर ने रथनेमि को अरिष्टनेमि का भाई बतलाया है। किन्तु जिनदास महत्तर ने रथनेमि को अरिष्टनेमि का ज्येष्ठ भ्राता बतलाया है-- ___ --जि० चू० पृ० ८७ : यदा किल अरिटुणेमी पब्वइओ तथा रहणेमो तस्स जेट्ठो भाउओ राइमई उवयरइ। १-चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार ७ वा श्लोक कहा। देखिए पाद-टिप्पणी १।। २- उत्तराध्ययन सूत्र के २२ वें अध्ययन में अर्हत् अरिष्टनेमि को प्रव्रज्या का मार्मिक और विस्तृत वर्णन है। प्रसंगवश रथनेमि और राजीमती के बीच घटी घटना का उल्लेख भी आया है। कोष्ठक के अन्दर का चूणि लिखित वर्णन उत्तराध्ययन में नहीं मिलता। ३-चूणिकार और टीकाकार के अनुसार ८ वां और हवाँ इलोक कहा । देखिए पाद-टिप्पणी १ । ४... नि० गा० १७ : सच्चप्पवायपुवा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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