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जो संयम में श्रम करे उसे श्रमरण कहते हैं। श्रमरण के भाव को श्रमरणत्व या श्रामण्य कहते हैं ।
योज बिना वृक्ष नहीं होता वृक्ष के पूर्व बीज होता है। दूध बिना ही नहीं होता यही के पूर्व दूध होता है। समय विना ग्रावलिका नहीं होती आवलिका के पूर्व समय होता है; दिवस बिना शत नहीं होती रात के पूर्व दिन होता है। पूर्व दिशा के बिना अन्य दिशाएँ नहीं बनतीं— अन्य दिशाओं के पूर्व पूर्व दिशा होती है। प्रश्न है श्रामण्य के पूर्व क्या होता है ? वह कौन सी बात है जिसके बिना श्रामण्य नहीं होता, नहीं टिकता ।
अध्ययन में जिस बात के बिना श्रामण्य नहीं होता, उसकी चर्चा होने से इसका नाम 'श्रामण्यपूर्वक' रखा
इस
गया है ।
आमुख
टीकाकार कहते हैं: "पहले अध्ययन में धर्म का वर्णन है। वह धृति बिना नहीं टिक सकता । अतः इस अध्ययन में धृति का प्रतिपादन है । कहा है :
जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलभा । जे अधिइमत पुरिसा तयोऽपि खलु बुस्तहो तेसि ॥
-"जिसकी धृति होती है, उसके तप होता है। जिसके तप होता है, उसको सुगति सुलभ है । जो प्रवृतिवान् पुरुष हैं, उनके लिए तप भी निश्चय ही दुर्लभ है ।"
इसका अर्थ होता है : धृति, अहिंसा, संयम, तप और इनका समुदाय श्रामण्य की जड़ है । श्रामण्य का मूल बीज धृति है । अध्ययन के पहले ही श्लोक में कहा है जो काम - राग का निवारण नहीं करता, वह श्रामण्य का पालन कैसे कर सकेगा ? इस तरह काम - राग का निवारण करते रहना श्रामण्य का मूलाधार है, उसकी रक्षा का मूल कारण है ।
साधु स्वनेमि साध्वी राजीमती मे विषय-वन की प्रार्थना करते हैं। उस समय सानी राजीमती उन्हें संग में दृढ़ करने के लिए जो उपदेश देती है प्रथवा इस कायरता के लिए उनकी जो भर्त्सना करती है, वही बिना घटना-निर्देश के यहाँ अंकित है।
पूरा और टीकाकार सातसाठयां और न श्लोक ही राजीमती के मुंह से कहलाते हैं किन्तु लगता ऐसा है कि १ से १ तक के लोक राजमती द्वारा रथनेमि को कहे गए उपदेशात्मक तथ्यों के संकलन हैं। रथनेमि राजीमती से भोग की प्रार्थना करते हैं। वह उन्हें धिक्कारती है और संयम में फिर से स्थिर करने के लिए उन्हें ( १ ) काम और श्रामण्य का विरोध ( श्लोक १), (२) त्यागी का स्वरूप ( श्लोक २-३ ) और (३) राग-विनयन का उपाय ( श्लोक ४-५ ) बतलाती है। फिर संवेग भावना को जागृत करने के लिए उद्बोधक उपदेश देती है ( श्लोक ६-९ ) । इसके बाद राजीमती के इस सारे कथन का जो असर हुआ उसका उल्लेख है ( श्लोक १० ) । अन्त में संकलनकर्ता का उपसंहारात्मक उपदेश है ( श्लोक ११) ।
चूर्णिकार अगस्त्य सिंह फ्लोक ६ और ७ की व्याख्या में रचनेमि और राजीमती के बीच पटी पटना का उल्लेख निम्न रूप में करते हैं:
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१- अ० चू० पृ० ४६ : अरिट्ठमिसामिणो भाया रहनेमी भट्टारे पव्वद्दतं रायमति आराहेति 'जति इच्छेज्ज' । सा निव्विण्णकामभोगा तस्स विदिताभिप्पाया कल्लं मधु-घयसंजुत्तं पेज्जं पिबति आगते कुमारे मदणफलं मुहे पक्खिप्प पानीए छड्डे तुमुवणिमंतेति पिसि ? तेण पडिवणे वंतमुवणयति तेन किमिदं ? इति भणिते भगति ददमवि एवंप्रकारमेव भावतो भगवता परिच्चत्त त्ति वंता, अतो तुज्झ मामभिल संतस्स..
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