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________________ पिंडेसणा ( पिण्डषणा) २७१ अध्ययन ५ (द्वि० उ०): श्लोक ४२-४८ ४२-तवं कुब्वइ मेहावी पणीयं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ तवस्सी अइउक्कसो ॥ तपः करोति मेधावी, प्रणीतं वर्जयेद् रसम् । मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षः ॥४२॥ ४२-४३ - जो मेधावी तपस्वी तप करता है, प्रणीत रस को वर्जता है, मद्यप्रमाद६३ से विरत होता है, गर्व नहीं करता, उसके अनेक साधुओं द्वारा प्रशंसित, विपुल और अर्थ-संयुक्त५ कल्याण को स्वयं देखो६६ और मैं उसकी कीर्तना करूँगा वह सुनो। ४३-तस्स पस्सह कल्लाणं अणेगसाहुपूइयं । विउलं अत्थसंजुत्तं कित्तइस्सं सुह मे ॥ तस्य पश्यत कल्याणं, अनेक-साधु-पूजितम्। विपुलमर्थ-संयुक्तं, कोर्तयिष्ये शृणुत मम ॥४३॥ ४४-एवं तु गुणप्पेही अगुणाणं च विवज्जओ। तारिसो मरणंते वि आराहेइ संवरं ॥ एवं तु गुण-प्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः। तादृशो मरणान्तेऽपि, आराधयति संवरम् ॥४४॥ ४४---इस प्रकार गुण की प्रेक्षा(आसेवना) करने वाला और अगुणों को६७ वर्जने वाला, शुद्ध-भोजी मनि मरणान्तकाल में भी संवर की आराधना करता है। ४५-आयरिए आराहेइ समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति जेण जाणंति तारिसं ॥ आचार्यानाराधयति, श्रमणांश्चापि तादृशः। गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम् ॥४५॥ ४५-वह आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी। गृहस्थ भी उसे शुद्धभोजी मानते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं। ४६-तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे। आयारभावतेणे य कुव्वइ देवकिम्बिसं ॥ तपःस्तेन: वचःस्तेनः, रूपस्तेनश्च यो नरः। आचार-भावस्तेनश्च, करोति देव-किल्बिषम् ॥४६॥ ४६-जो मनुष्य तप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर६८ होता है, वह किल्बिषिक देव-योग्य-कर्म करता है। ४७- लघृण वि देवत्तं उववन्नो देवकिब्बिसे । तत्था वि से न याणाइ कि मे किच्चा इमं फलं ?॥ लब्ध्वाऽपि देवत्वं, उपपन्नो दैव-किल्बिषे। तत्राऽपि सः न जानाति, कि मे कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥ ४७-किल्बिषिक देव के रूप में उपपन्न जीव देवत्व को पाकर भी वहाँ वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किस कार्य का फल है। ४६-तत्तो वि से चइत्ताणं लम्भिही एलमूययं । नरयं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ ततोऽपि सः च्युत्वा, लप्स्यते एडमूकताम् । नरकं तिर्यग्योनि वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ॥४८॥ ४८-वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्यगति में आ एडमूकता (गंगापन) ७१ अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को पाएगा, जहां बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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