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पिंडेसणा ( पिण्डषणा)
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अध्ययन ५ (द्वि० उ०): श्लोक ४२-४८
४२-तवं कुब्वइ मेहावी
पणीयं वज्जए रसं । मज्जप्पमायविरओ तवस्सी अइउक्कसो ॥
तपः करोति मेधावी, प्रणीतं वर्जयेद् रसम् । मद्यप्रमादविरतः, तपस्वी अत्युत्कर्षः ॥४२॥
४२-४३ - जो मेधावी तपस्वी तप करता है, प्रणीत रस को वर्जता है, मद्यप्रमाद६३ से विरत होता है, गर्व नहीं करता, उसके अनेक साधुओं द्वारा प्रशंसित, विपुल और अर्थ-संयुक्त५ कल्याण को स्वयं देखो६६ और मैं उसकी कीर्तना करूँगा वह सुनो।
४३-तस्स पस्सह कल्लाणं
अणेगसाहुपूइयं । विउलं अत्थसंजुत्तं कित्तइस्सं सुह मे ॥
तस्य पश्यत कल्याणं, अनेक-साधु-पूजितम्। विपुलमर्थ-संयुक्तं, कोर्तयिष्ये शृणुत मम ॥४३॥
४४-एवं तु गुणप्पेही
अगुणाणं च विवज्जओ। तारिसो मरणंते वि आराहेइ
संवरं ॥
एवं तु गुण-प्रेक्षी, अगुणानां च विवर्जकः। तादृशो मरणान्तेऽपि, आराधयति संवरम् ॥४४॥
४४---इस प्रकार गुण की प्रेक्षा(आसेवना) करने वाला और अगुणों को६७ वर्जने वाला, शुद्ध-भोजी मनि मरणान्तकाल में भी संवर की आराधना करता है।
४५-आयरिए आराहेइ
समणे यावि तारिसो। गिहत्था वि णं पूयंति जेण जाणंति तारिसं ॥
आचार्यानाराधयति, श्रमणांश्चापि तादृशः। गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति, येन जानन्ति तादृशम् ॥४५॥
४५-वह आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी। गृहस्थ भी उसे शुद्धभोजी मानते हैं, इसलिए उसकी पूजा करते हैं।
४६-तवतेणे वयतेणे
रूवतेणे य जे नरे। आयारभावतेणे य कुव्वइ देवकिम्बिसं ॥
तपःस्तेन: वचःस्तेनः, रूपस्तेनश्च यो नरः। आचार-भावस्तेनश्च, करोति देव-किल्बिषम् ॥४६॥
४६-जो मनुष्य तप का चोर, वाणी का चोर, रूप का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर६८ होता है, वह किल्बिषिक देव-योग्य-कर्म करता है।
४७- लघृण वि देवत्तं
उववन्नो देवकिब्बिसे । तत्था वि से न याणाइ कि मे किच्चा इमं फलं ?॥
लब्ध्वाऽपि देवत्वं, उपपन्नो दैव-किल्बिषे। तत्राऽपि सः न जानाति, कि मे कृत्वा इदं फलम् ॥४७॥
४७-किल्बिषिक देव के रूप में उपपन्न जीव देवत्व को पाकर भी वहाँ वह नहीं जानता कि 'यह मेरे किस कार्य का फल है।
४६-तत्तो वि से चइत्ताणं
लम्भिही एलमूययं । नरयं तिरिक्खजोणि वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥
ततोऽपि सः च्युत्वा, लप्स्यते एडमूकताम् । नरकं तिर्यग्योनि वा, बोधिर्यत्र सुदुर्लभा ॥४८॥
४८-वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्यगति में आ एडमूकता (गंगापन) ७१ अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को पाएगा, जहां बोधि अत्यन्त दुर्लभ होती है।
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