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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक) २७० अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ३५-४१ ३५-पूयणट्ठी जसोकामी माणसम्माणकामए बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई॥ पूजनार्थी यशःकामी, मान-सम्मान-कामकः । बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यञ्च करोति ॥३५॥ ३५–बह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना करने वाला५४ मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया-शल्य५५ का आचरण करता है। ३६--सुरं वा मेरगं वा वि अन्नं वा मज्जगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू सारक्खमप्पणो॥ सुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद्वा माद्यकं रसम् । स्व (स) साक्ष्य न पिबेद्भिक्षुः, यश: संरक्षन्नात्मनः ॥३६॥ ३६-अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस आत्म-साक्षी से५८ न पीए। जसं ३७–पिया एगइओ तेणो न मे कोइ वियाणई। तस्स पस्सह दोसाई निर्याड च सुह मे ॥ पिबति एककः स्तेनः, न मां कोऽपि विजानाति । तस्य पश्यत दोषान्, निकृति च श्रृणुत मम ॥३७॥ ३७ --जो मुनि--- मुझे कोई नहीं जानता (यों सोचता हुआ) एकान्त में स्तेन-वृत्ति से मादक रस पीता है, उसके दोषों को देखो और मायाचरण को मुझसे सुनो। ३८-वड्डई सोंडिया तस्स मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ॥ वर्धते शौण्डिता तस्य, माया-मृषा च भिक्षोः। अयशश्चानिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥ ३८--उस भिक्षु के उन्मत्तता, मायामृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता--- ये दोष बढ़ते हैं। ३६-निच्चुग्विग्गो जहा तेणो नित्योद्विग्मो यथा स्तेनः, अत्तकम्मेहि दुम्मई। आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः। तादृशो मरणान्तेऽपि, तारिसो मरणंते वि नाराधयति संवरम् ॥३६॥ नाराहेइ संवरं॥ ३६- वह दुर्मति अपने दुष्कर्मों से चोर की भांति सदा उद्विग्न रहता है । मद्यपमुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता। ४०-आयरिए नाराहेइ आचार्यान्नाराधयति. समणे यावि तारिसो। श्रमणांचापि तादृशः । गिहत्था वि णं गृहस्था अप्येनं गर्हन्ते, गरहंति येन जानन्ति तादृशम् ॥४०॥ जेण जाणंति तारिसं ॥ ४०-- वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी गर्दा करते हैं। एवंतु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः । ४१-एवं गुणाणं तारिसो नाराहेइ तु अगुणप्पेही च विवज्जओ। मरणंते वि संवरं ॥ ४१-इस प्रकार अगुणों की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और गुणों को वर्जने वाला मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता। तादृशो मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् ॥४१॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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