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दसवेआलियं ( दशवकालिक)
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अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक ३५-४१
३५-पूयणट्ठी जसोकामी
माणसम्माणकामए बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई॥
पूजनार्थी यशःकामी, मान-सम्मान-कामकः । बहु प्रसूते पापं, मायाशल्यञ्च करोति ॥३५॥
३५–बह पूजा का अर्थी, यश का कामी और मान-सम्मान की कामना करने वाला५४ मुनि बहुत पाप का अर्जन करता है और माया-शल्य५५ का आचरण करता है।
३६--सुरं वा मेरगं वा वि
अन्नं वा मज्जगं रसं। ससक्खं न पिबे भिक्खू
सारक्खमप्पणो॥
सुरां वा मेरकं वाऽपि, अन्यद्वा माद्यकं रसम् । स्व (स) साक्ष्य न पिबेद्भिक्षुः, यश: संरक्षन्नात्मनः ॥३६॥
३६-अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी प्रकार का मादक रस आत्म-साक्षी से५८ न पीए।
जसं
३७–पिया एगइओ तेणो
न मे कोइ वियाणई। तस्स पस्सह दोसाई निर्याड च सुह मे ॥
पिबति एककः स्तेनः, न मां कोऽपि विजानाति । तस्य पश्यत दोषान्, निकृति च श्रृणुत मम ॥३७॥
३७ --जो मुनि--- मुझे कोई नहीं जानता (यों सोचता हुआ) एकान्त में स्तेन-वृत्ति से मादक रस पीता है, उसके दोषों को देखो और मायाचरण को मुझसे सुनो।
३८-वड्डई सोंडिया तस्स
मायामोसं च भिक्खुणो। अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ॥
वर्धते शौण्डिता तस्य, माया-मृषा च भिक्षोः। अयशश्चानिर्वाणं, सततं च असाधुता ॥३८॥
३८--उस भिक्षु के उन्मत्तता, मायामृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता--- ये दोष बढ़ते हैं।
३६-निच्चुग्विग्गो जहा तेणो नित्योद्विग्मो यथा स्तेनः, अत्तकम्मेहि दुम्मई।
आत्मकर्मभिर्दुर्मतिः।
तादृशो मरणान्तेऽपि, तारिसो मरणंते वि
नाराधयति संवरम् ॥३६॥ नाराहेइ
संवरं॥
३६- वह दुर्मति अपने दुष्कर्मों से चोर की भांति सदा उद्विग्न रहता है । मद्यपमुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता।
४०-आयरिए नाराहेइ आचार्यान्नाराधयति.
समणे यावि तारिसो। श्रमणांचापि तादृशः । गिहत्था वि णं
गृहस्था अप्येनं गर्हन्ते, गरहंति
येन जानन्ति तादृशम् ॥४०॥ जेण जाणंति तारिसं ॥
४०-- वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी गर्दा करते हैं।
एवंतु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः ।
४१-एवं
गुणाणं तारिसो नाराहेइ
तु अगुणप्पेही च विवज्जओ। मरणंते वि
संवरं ॥
४१-इस प्रकार अगुणों की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और गुणों को वर्जने वाला मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता।
तादृशो मरणान्तेऽपि,
नाराधयति संवरम् ॥४१॥
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