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पिंडेसणा ( पिण्डैषणा )
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अध्ययन ५ (द्वि० उ०) : श्लोक २८-३४
२८-सयणासण वत्थं वा
भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ॥
शयनासनं वस्त्रं वा, भक्त-पानं वा संयतः। अददतो न कुप्येत्, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने ॥२८॥
२८-संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे।
२६-इत्थियं पुरिसं वा वि
डहरं वा महल्लगं । वंदमाणो न जाएज्जा नो य णं फरसं वए॥
स्त्रियं पुरुषं वाऽपि, डहर वा महान्तम् । वन्दमानो न याचेत, नो चैनं परुषं वदेत् ॥२६॥
२६---मुनि स्त्री या पुरुष, बाल या वृद्ध की वन्दना (स्तुति) करता हुआ याचना न करे५०, (न देने पर) कठोर वचन न बोले ।
से कुप्पे समुक्कसे।
३०-जे न वंदे न
वंदिओ न एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्टई
यो न वन्दते न तस्मै कुप्येत्, वन्दितो न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य, श्रामण्यमनुतिष्ठति ॥३०॥
३०-जो वन्दना न करे उस पर कोप न करे, वन्दना करने पर उत्कर्ष न लाएगर्व न करे। इस प्रकार (समुदानचर्या का) अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य निर्बाच भाव से टिकता है।
३१-सिया एगइओ लर्बु
लोभेण विणिगृहई। मा मेयं दाइयं संतं दळूणं सयमायए॥
स्यादेकको लब्ध्वा, लोभेन विनि हते। मा ममेदं दर्शितं सत्, दृष्ट्वा स्वयमादद्यात् ॥३१॥
३१-३२-~-कदाचित् कोई एक मुनि सरस आहार पाकर उसे, आचार्य आदि को दिखाने पर वह स्वय ले न ले,---इस लोभ से छिपा लेता है, वह अपने स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला और रस-लोलुप मुनि बहुत पाप करता है। वह जिस किसी वस्तु से संतुष्ट नहीं होता और निर्वाण को नहीं पाता।
३२–अत्तगुरुओ लुद्धो
बहुं पावं पकुव्वई। दुत्तोसओ य से होइ निव्वाणं च न गच्छई ॥
आत्मार्थ-गुरुको सुब्धः, बहु पापं प्रकरोति। दुस्तोषकश्च स भवति, निर्वाणं च न गच्छति ॥३२॥
३३ --सिया
विविहं भद्दगं विवण्णं
एगइओ लर्बु
पाणभोयणं । भद्दगं भोच्चा
विरसमाहरे ॥
स्यादेकको लब्ध्वा, विविधं पान-भोजनम् । भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा , विवर्ण विरसमाहरेत् ॥३३॥
३३- कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के पान और भोजन पाकर कहीं एकान्त में बैठ श्रेष्ठ-श्रेष्ठ खा लेता है, विवर्ण और विरस को स्थान पर लाता है।
३४-जाणंतु ता इमे समणा जानन्तु तावदिमे श्रमणा, आययट्ठी अयं मुणी।
आयतार्थी अयं मुनिः ।
सन्तुष्टः सेवते प्रान्तं, संतुटको सेवई पंतं
__रूक्षवृत्तिः सुतोषकः ॥३४॥ लूहवित्ती सुतोसओ ॥
३४... ये श्रमण मुझे यों जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी५२ है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (असार) आहार का सेवन करता है, रूक्षत्ति५३ और जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला है।
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