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पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदवखो, आणा - पहाणो जणि जस्स निच्चं ।
सच्चप्पओगे
पवरासयस,
भिक्स तरस पापुवं ॥
विलोडियं लड
आगमदुद्धमेव, सुलद्ध णवणीयमच्छं
सज्झाय सज्झाण- रयस्स निच्चं,
जयस्स
तस्स
व्यणिहाणपुच्वं ॥
पवाहिया जेण सुयस्स धारा,
माणसे वि।
गणे समत्थे मम जो हेडभूज स्स कालुरा तस्स
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पवायणस्स,
पणिहाण पुव्वं ॥
समर्पण
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥३॥
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जिसका
प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट
पटु,
1
होकर भी आगम प्रधान था सत्य-योग उस भिक्षु को विमल भाव से ||
में
प्रवरचित्त था,
जिसने पाया प्रवर
आगम-दोहन
प्रचुर श्रुत-सदुध्यान तीन जयाचार्य को विमल
कर-कर,
नवनीत
1
पिर चिन्तन, भाव से ।।
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन
में । में,
श्रुत-सम्पादन
हेतुभूत कालुगणी को विमल भाव से ॥
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